शारदीय नवरात्र पर विशेष
भारत, यह नाम स्वयं में ही
संस्कृति, सभ्यता और ज्ञान की अनुभूति करा देती है । सत्य तो यह है कि अनादि काल
से चली आ रही परम्पराओं को लेकर चलने वाले इस भूखण्ड के भीतर का हर दृश्य ही कोई न
कोई विशेष रहस्य लेकर संजोये है । प्रातः काल के सूर्योदय से लेकर अगले दिन के
सूर्योदय तक होने वाली समस्त गतिविधियों में कई रहस्य लेकर ही यहाँ की दिनचर्या
स्थापित है । पूरे वर्ष भर में होने वाले सभी षड्ऋतुओं में विभिन्न-विभिन्न रस्मों
का निभाना भी बहुत सारे रहस्य लेकर ही स्थापित है । जीवन भर के भिन्न-भिन्न
बाल्य-युवा आदि अवस्थाओं से सम्बन्धित संस्कारों में भी गूढ़ रहस्यों पर विचार किया
गया है । आधुनिकता कि इस चकाचौंध में न जाने क्यों जनमानस का इन सांस्कृतिक
गतिविधियों से सम्बन्ध उठता चला जा रहा है । यह विचारणीय है । चुकि व्यक्तिगत रूप
से विचार करने पर ऐसा परिलक्षित होता है कि यदि किसी कारणवश स्वयं की दैनंदिनी में
कोई बहुत बड़ा बदलाव आ जाये तो पुनः दैनंदिनी को पूर्वानुरूप करना कष्टसाध्य ही
होता है । कई बार तो हम सोंचते ही रह जाते हैं किन्तु पहले की भांति की दैनंदिनी
की स्थापना नहीं कर पाते । तब पछताते हैं कि सम्भवतः किसी भी प्रकार से अपनी
दैनंदिनी का निर्वहन हम कर सके होते । अतः, सम्भव है कि हमारी सांस्कृतिक विरासत
पर उठ रहे सवालों का वर्तमान काल के समयानुसार प्रश्नों का उत्तर देना वर्तमान में
पूर्णतः सम्भव न हो अपितु फिर भी उनका तिरस्कार तर्कसंगत नहीं लगता । सबसे पहले तो
ध्यातव्य यह रहे कि, जरूरी नहीं कि जो तथ्य उपस्थित आधारों से प्रमाणित न हो सके
वह अप्रासंगिक ही हो । जैसे कि हाथ की हथेली पर रोमावली क्यों उपलब्ध नहीं होता ।
अब एक ही लेख में सभी
विषयों पर चर्चा करना संभव नहीं । अतः, आइये अपनी मति अनुसार हम यह समझने की
चेष्टा करते हैं कि नवरात्र का अनुष्ठान भारतीय सनातनी परम्परा में सभी के लिये
आवश्यक क्यों दिखता है । इसके विभिन्न वैज्ञानिक कारण हैं । उन सभी को एक-एक करके
समझने की चेष्टा करते हैं ।
(1)
भारत में प्रमुख रूप से दो
नवरात्र का आयोजन सभी घरों में होता है । प्रथम वासंती नवरात्र तथा दूसरा शारदीय
नवरात्र । दोनों कालखण्ड ऋतु परिवर्तन का समय होता है । शारदीय नवरात्र से पूर्व
वर्षाकाल में खूब वर्षा होती है । विभिन्न जगहों से होकर जल खेतों में जाता है । प्रकृति
को उन जलसमूह को पवित्र करने का अवसर भी नहीं मिल पाता कि उन्हीं जलों को प्राप्त
करके पौधे पल्लवित हो जाते हैं । वर्षाकाल में हम वैसे ही उत्पन्न फल-सब्जी-साग
आदि को खाते रहते हैं । भूगर्भ में भी गया हुआ जल ताजा ही रहता है । अतः जगह-जगह
से प्राप्त रसायन आदि तत्वों के साथ जल अलग-अलग स्थानों को चला जाता है । अतः उस
समय खाया गया भोजन और पिया हुआ जल में विषाक्तता की मात्रा ज्यादा होने की
सम्भावना रहती है । आयुर्वेद में वर्षा ऋतु में उन जल से उत्पन्न घास को खाना तो
मना किया ही है साथ ही साथ उन घासों को खाकर जो गोवंश ने दूध दिया है, वह दूध भी
विषाक्त ही है । अतः वर्षाकाल में दूध से नित्य रुद्राभिषेक करने का विधान बताया
है । यदि दूध को बचाकर कोई दही बना ले । ऐसी परिस्थिति में आयुर्वेद वर्षाकाल में दही
भक्षण का भी निषेध करता है । अब, ज्ञात-अज्ञात में हम ऐसे विषाक्त भोजन का सेवन
वर्षाकाल में कर ही लेते होंगे जिसके परिणामस्वरूप टाक्सीफिकेशन की समस्या उत्पन्न
हो जाती है । आवश्यकता हुई कि इस ऋतुपरिवर्तन काल के आगमन काल में शरीर का डिटॉक्सिफिकेशन
किया जाये । अतः शुद्ध-सात्विक भोजन या उपवास के माध्यम से इस प्रक्रिया को नव
दिनों तक करके हम शरीर और मन दोनों से स्वस्थ और सुन्दर रह सकते हैं ।
(2)
ऋतु-परिवर्तनकाल में दिन
में गर्मी और रात्रि में ठण्डक रहती है । यह स्थिति कीटाणुओं के प्रजनन और वर्धन
के लिए बहुत ही आवश्यक होती है । अतः इस काल में कीटाणुओं के बढ़ने से रोगों के
प्रचार-प्रसार की भी संभावना अत्यधिक होती है । इनमें से कई बिमारियाँ जल, वायु और
भोजन से ही फैलता है । अतः जल पवित्र जगह से पीने, भोजन शुद्ध-सात्त्विक और घर का
करने तथा पूजन के कर्मकाण्ड (जिस पर लोग ज्यादा हास्य व्यंग्य करते हैं) के
अन्तर्गत प्राणायाम-धूप-दीप-हवन आदि के द्वारा वायु संशुद्धि करने की चेष्टा की
जाती है । नित्य जलने वाले कर्पूर-हवन सामग्री आदि से निकलने वाले धुआँ वातावरण में
उपस्थित इन कीटाणुआँ का नाश करने में समर्थ होती है । नवरात्र-व्रत के इन सभी
अंग-उपांगों में जनमानस को स्वास्थ्य के साथ-साथ सुरक्षा प्राप्त करने का भी ध्येय
है ।
(3)
वर्षा ऋतु में बाढ़ की
समस्या प्रायः सम्भावित ही रहती है । जिन्होंने बाढ़ की विभीषका को देखा है, (समाचार
में बाढ़ ग्रसित स्थली का विडियो देखने मात्र से बाढ़ को समझा नहीं जा सकता) वे ही
इस तथ्य को समझेंगे कि बाढ़ के पूर्व जो जहाँ गये होते हैं, उनको अपने घर लौटने
में असम्भावना ही दिखती है । बाढ़ के बाद ऐसे बिछुड़े हुए परिजन की प्राप्ति,
अत्यन्त ही आनन्ददायक होती है । प्रेम के स्पन्दन होते ही समर्पण की भावना की
अनुभूति होती है । जिनके परिजन मिल जाते थे, वे बड़े उत्साह के साथ भगवान को
धन्यवाद ज्ञापन करने के लिए नवरात्र के अवसर पर विशेष आयोजन करते थे । कुछ ऐसे भी
लोग होते ते जिनके घर उजड़ जाते थे । नवरात्र के अवसर पर, उन जैसे उजड़े घरवाले
लोगों की सहयात के लिए दान करने की परम्परा पर विशेष महत्त्व दिया गया है ।
(4)
एक पुरानी कहावत है कि जैसा
खाओगे अन्न, वैसा होगा मन । हमारे भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु ने अपने
प्रयोगों के माध्यम से यह स्थापित कर दिया कि वृक्षों को भी आपके द्वारा दिये गये
सामग्रियों से प्रसन्नता और अवसाद की प्राप्ति होती है । वर्षाकाल में विषाक्त जल
से पौधों को भी अवश्यमेव दुख की अनुभूति होती होगी । ऐसे दुखी पौधों की उपज को
लेकर, क्या हमें सुख और शांति की प्राप्ति हो सकती है । अतः हमें वृक्षों को भी
प्राकृतिक रूप से स्वस्थ होने का अवसर प्रदान करना चाहिये । विभिन्न प्रयोगशालाओं
में वर्तमान काल में चल रहे अनुसंधान में ऐसी चर्चा आती है कि वैदिक हवन से
प्राप्त भस्म की प्राप्ति करके पौधों में भी रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है
। आप ध्यान दें, आपके पण्डित जी आपसे कहते हैं कि हवन का भस्म या तो बहती नदी में
डालें या किसी फलदान वृक्ष के नीचे डालें । ऐसी परम्परा का आशय ही औषधी जगत को
पवित्र और शुद्ध करना है । और ऐसे ही आनंदित वृक्षों के फलादि को प्राप्त करके हम
वर्ष भर आनंद की प्राप्ति करते रहते हैं ।
(5)
मस्तिष्क अत्यन्त ही चंचल
है । शरद ऋतु अत्यन्त ही स्वच्छ और उर्जादायक होता है । कार्तिक मास का एक और नाम
उर्जमास भी है । उर्जा की अत्यधिक व्यवस्था हमें विक्षिप्त या उत्तेजित भी कर सकती
है । जिसके कारण समाज में विद्रोह-युद्ध आदि की संभावना भी बनती ही रहती है । अतः,
उर्जा के नियंत्रण के लिए मन को संतुलित करने की अत्यन्त ही आवश्यकता है । मन के
संतुलन के लिये अन्तर और बाह्य नियमों का निर्माण वैदिककाल में किया गया है । इसी
उद्देश्य से नवरात्र में उन समस्त नियमों का पालन जैसे कि- उपवास, सात्विक भोजन,
नित्य ध्यान-पूजन, ब्रह्मचर्य व्रत आदि का विधान बताया गया है ।
(6)
नवरात्र के व्रतोपवास का
प्रभाव व्यकितत्व के निर्माण पर भीकरता है । नव दिनों तक सभी ओर सात्विक वातावरण
का असर मनुष्य के मानस पटल पर पड़ता है । और वह अपने इन दुर्गुणों पर विजय प्राप्त
करता है – (1) काम, (2) क्रोध, (3) लोभ,(4) मोह, (5) अहंकार, (6) भय, (7) ईर्ष्या,
(8) जड़ता, (9) घृणा और (10) पश्चाताप । इन सभी दोषों से मुक्त होते ही
अवसाद, विषाद आदि तनावों से मुक्त होकर मनुष्य स्वस्थ होता है ।
(7)
शरीर को सुन्दर रखने के लिए
भी हम कई प्रयास करते रहते हैं । नवरात्र व्रत का पालन आपको शरीर से टॉक्सिक को
निकाल देता है, पाचन क्रिया दुरुस्त कर देता है और परिणामस्वरूप प्रसन्न मन के साथ
सुन्दर शरीर को भी देता है । आपने सुना होगा हमेशा से ही कवियों ने शरद ऋतु के पूर्णिमा
के चन्द्रमा के सदृश ही नायिकाओं की कल्पना की है । अतः शरद ऋतु के यह व्रत कवि की
कल्पना को साकार करने के लिए भी सुन्दरता को प्रदान करता है ।
स्वामी श्रीवेंकटेशाचार्य जी,
श्रीचरण आश्रम, वृन्दावन
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