जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ते यत्सूरयः ।
तेजोवारिमृदां
यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ।।
(1/1/1)
श्रीमद्भागवत महापुराण का मंगलाचरण का प्रथम
श्लोक अद्भुत रहस्यों से युक्त है । आइए इस पर विचार करें -
य ब्रह्म - वह जो ब्रह्म है, जन्माद्यस्य यतः - जिससे
इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं, और जो इतरतः - अन्य स्थान
(नित्य विभूति वैकुण्ठ) से, अन्वयात् – पीछे से (गुप्त रूप से या परोक्ष
रूप से अन्तर्यामी भाव से), अर्थेषु – सासांरिक वस्तुओं में (उस परम अर्थ
के लिए उपस्थित वस्तु को अर्थ कहते हैं), अभिज्ञः – जानने वाला है (साक्षी
जीवात्मा के रूप में उपस्थित या परम कर्ता है), च – और, स्वराट् - परम
स्वतंत्र है, इ – अचरज की बात यह है कि, तेन – उसके द्वारा, हृदा
– संकल्प से ही, आदिकवये – आदिकवि ब्रह्माजी के लिए वेदज्ञान दिया गया है, यत्सूरयः
–जिसके विषय में (उस परम ज्ञान या भगवद्लीला के बारे में) बड़े-बड़े विद्वान भी, मुह्यन्ति
– मोहित हो जाते हैं ।
यथा –जैसे, तेजोवारिमृदां विनिमयो - तेजोमय सूर्यरश्मी (तेज) में जल का,
जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, यत्र त्रिसर्गोऽमृषा - वैसे
ही जिसके कारण इस संसार में जहाँ यह त्रिगुणमयी जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा मिथ्या
सृष्टि होने पर भी प्रत्यक्ष प्रतीत होती है, वहीं, धाम्ना स्वेन - अपनी
स्वयंप्रकाश ज्योति से, सदा –सर्वदा, निरस्तकुहकं - माया रूप कोहरा
से पूर्णतः मुक्त रहनेवाले, परं सत्यम् - परम सत्यरूप परमात्मा का, धीमहि
- हम ध्यान करते हैं ।
ब्रह्मसूत्र में जब जिज्ञासा किया गया कि ब्रह्म
क्या है ? तब उसके उत्तर में यही निष्कर्ष दिया गया कि
जन्माद्यस्य
यतः – ब्रह्मसूत्र 1/1/2
मंगलाचरण के प्रथम पद में जन्माद्यस्य यतः है अर्थात्
यह श्रीमद्भागवत महापुराण वेद सम्मत है । या यूं कहें कि वेदानत् जिन ब्रह्म के
रहस्यों के उद्घाटन के लिए किया गया है, उन्हीं रहस्यों का उद्घाटन श्रीमद्भागवत
महापुराण सरल-सरस रूप में करेगी । एक और सुन्दर रहस्य है कि जन्माद्यस्य यतः
भगवान के निमित्त कारण होने का प्रमाण दे रहे हैं, वहीं पर अन्वयादितरतश्चार्थेषु
अभिज्ञः पद से भगवान सबके साक्षी और कर्ता प्रमाणित होने से उपादान कारण भी
सिद्ध हो रहे हैं । यही नहीं भगवान ब्रह्मा को भी ज्ञान प्रदायक के रूप में
स्थापित किए जा रहे हैं अर्थात् ज्ञान के मूल स्रोत भी श्रीभगवान ही हैं । जिस
तरीके से वेदवाणी भगवान की ही वाणी होकर अपौरुषेय है ठीक उसी प्रकार से भगवान की
नाम, लीला, रूप और धाम से युक्त श्रीमद्भागवत की मधुर कथाओं के माध्यम से ही मोह
का नाश भगवान करेंगे । अर्थात् भगवान के द्वारा उपदिष्ट होने से यह भी अपौरुषेय
अलौकिक ही है । साथ ही जिनके महिमा के अनुसंधान में बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित
हैं, ऐसे भगवान की महिमा को गान करने के लिए हम सब भी आज उपस्थित हुए हैं । तो यह
मन से हटा दें कि हम उनके संपूर्ण रहस्य को समझ सकेंगे और मात्र सेवा के भाव से ही
कथा का रसपान करके जीवन को धन्य धन्य बनावें ।
सिव बिरंचि
कहुँ मोहइ को है बापुरो आन । अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान ।।
(श्रीरामचरितमानस/उ का/62)
यह प्रथम श्लोक
शार्दूलविक्रीडितम् छन्द में प्रस्तुत है । इस छन्द में श्रीमद्भागवत जी में 13
श्लोक हैं । जिसमें से प्रथम दो श्लोक भी शार्दूलविक्रीडितम् छन्द में ही हैं ।
शार्दूलविक्रीडितम् का अर्थ है चीता का खेल । यदि श्रेष्ठ का अर्थ श्रेषठ लें जैसे
नरशार्दूल और विक्रीडितम् का अर्थ खेल तो आशय होगा श्रेष्ठ खेल । भगवान की
सर्वोत्कृष्ट लीला का संबंध प्रथम श्लोक में गायन किया है इसीलिए इसका गायन
शार्दूल विक्रीडितम् छन्द में ही किया गया है । इस छन्द में उन्नीस उन्नीस अक्षरों
वाले चार चरण होते हैं । चारों चरणों में 1,2,3,6,8,12,13,14,17,19 वां अक्षर गुरु
होते हैं । बारहवे और सातवें अक्षर पर यति अर्थात् विश्राम होता है । ध्यान देने
योग्य तथ्य है कि वैकुण्ठ की यात्रा में अर्चिरादिमार्ग में बारह लोक की यात्रा
होती है और यह श्रीमद्भागवत महापुराण सात दिनों में ब्रह्मा जी के निवास स्थली
सत्यलोक तक के सात लोकों के आवागमन का नाश करने वाली है ।
यहाँ तेज में जल का उदाहरण है - हनुमान जी की पूंछ
में जब आग लगी तो उन्हें चंदन की शीतलता की अनुभूति हुई ।
जल में थल का उदाहरण है – विभीषण जी के द्वारा एक
मनुष्य के माथे पर राम नामी बांध दी गई, तब वह पूरे समुद्र को पैदल चलकर पार कर
गया । वह प्रसंग स्वामी प्रियादास जी महाराज ने श्रीभक्तमाल की टीका में इस प्रकार
से गाई है, कि एक बार एक बनिया की जहाज समुद्र में चली जा रही थी । किसी कारण से
वह बिगड़ गई । बहुत प्रयत्न करने पर भी जब शुरू नहीं हुई तब बनिया के मन में यह
विचार आया कि समुद्र देवता रुष्ट हो गए हैं । समुद्र को प्रसन्न करने के लिए उसने
एक मनुष्य को बलि निमित्त समुद्र में फेंक दिया । दैवयोग से वह कुशलपूर्वक लंका
पहुँच गया । राक्षसों ने उसे पकड़ कर विभीषण के पास रख दिया । तब विभीषण ने उसे
अपने प्रभु श्रीराम के समान नर आकृति का जानकर खूब सम्मान किया । दिव्य वस्त्र,
चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य आदि के द्वारा सम्मान करके उसके सम्मुख सुवर्ण की छड़ी
लेकर प्रहरी के समान खड़े हो गए । किन्तु वह व्यक्ति बहुत ही भयभीत हो गया । उसे
लगता था कि इस सम्मान के बाद उसकी बलि दे दी जाएगी । इस प्रकार से उसे चिन्तित
देखकर विभीषण ने उससे चिन्ता का कारण पूछा ।
जब उसने यह बताया कि उसे उस पार जाने की इच्छा है । तब विभीषण बहुत सारे
रत्न लेकर समुद्र के किनारे पहुंच गए ।
राम नाम लिख, सीस मध्य धरि दियो, “याको यही जल पार करै”, भाव
सांचो पायो है ।
ताही ठौर बैठ्यो, मानो नयो और रूप भयो, गयो सो जहाज
सोई फिरि करि आयो है ।।
लियो पहिचान, पूछ्यो सब, सो बखान कियो, हियो हुलसायो,
सुनि, बिनैकै चढ़्यो है ।
पर्यो नीर कूदि, नेकु पांय न परस कर्यो, हर्यो मन
देखि, “रघुनाथ नाम” भायो है
।।
राम नाम का वस्त्र उसके माथे पर बांध दिया और कहा कि
जो भवसागर से पार करने वाले हैं उनके नाम के सहारे ही तुम इस सागर को पार कर जाओगे
। वे समुद्र पर चलते हुए उस जगह पहुंच गए जहाँ पर वह जहाज था । लोगों ने पहचान
लिया तब उसने सारा प्रसंग कह सुनाया है । तब सभी लोगों को प्रमाणित करने के लिए
उसने राम नाम से युक्त वस्त्र को माथे पर लपेट कर फिर से समुद्र में कूद कर थल की
भांति चल कर दिखा दिया । https://www.youtube.com/watch?v=N0IPE1Kk8F8
थल में जल का – मृगमरीचिका का दर्शन ।
जब धाम पद का अर्थ धाम लीला विभूति के रूप में लें तब
इस पद का आशय यह हो जाता है, कि भगवान अपने नाम, रूप, लीला और धाम चारों के माध्यम से अपने रसिक
भक्तों के हृदय के मोह रूपी अन्धकार को नाश करते हैं ।
किसी भी प्रकार के विचार और सहयोग देने के लिए, संपर्क करें -
स्वामी श्रीवेंकटेशाचार्यजी श्रीब्रजेशजी महाराज, 8958449929, 8579051030
अति उत्तम
जवाब देंहटाएंरामपाल संत नहीं है।बरवाला आश्रम, जिला हिसार हरियाणा में कपटी ढोंगी ,,रामपाल,, दूध से नहाता था और उसी दूध में नहाते समय पे'''' ब करता था।उसी नहाए हुए दूध से बनी खीर अपने भक्तों को खिलाया करता था।❤❤❤😮😮😮❤❤❤ रामपाल खुद को पुजवाता था।वह अपने को पूर्ण ब्रह्म परमात्मा यानी भगवान कहता था। वह कहता था कि वह खुद कबीर है और कबीर को परमात्मा बताता था।। वो सनातन धर्म विरोधी है।😮😮😮❤❤❤ मैंने खुद तीन साल रामपाल की बताई भक्ति करी। उसके दिए '''सतनाम''' का जाप किया। हिन्दू सनातन धर्म के भगवान और देवी देवताओं की निन्दा की।ब्राह्मणों की निन्दा की। मंदिरों का विरोध किया। मैं भी रामपाल की भाषा बोलने लगा था।जिसके कारण मुझे 30 वर्ष की उम्र में ही लकवा मार गया। मेरी अर्जी लगी कि मेरा लकवा ठीक कर दो तो रामपाल और उसके चेलों ने कहा कि आपका नाम खण्ड हो गया। सब ने मुंह मोड़ा। उसके पास मुझे ठीक करने की शक्ति ही नहीं थी।मुझे न रामपाल काम आया और न रामपाल की बताई भक्ति। मैं कंगाल हो गया।घर में भूत प्रेत पिसाच जिन्न जिन्नात वास कर गये थे वो तो प्रभु श्री राम के भक्त हनुमान श्री पंडोखर सरकार धाम जिला दतिया मप्र में जाकर मेरे प्राण बच गए और
हटाएंफिर 8 साल बाद ❤श्री पंडोखर सरकार धाम ❤जिला दतिया (म.प्र.)के ❤श्री हनुमान जी महाराज ❤ने मुझे पूर्ण स्वस्थ कर दिया। मैंने अपनी ग़लती की सजा पा ली है। आप लोगों को अपने जीवन का कटु सत्य और कटु अनुभव बता दिया है।आप लोगों को रामपाल के चेलों के बहकावे में ऐसी ग़लती नहीं करनी चाहिए। ❤जय श्री राम❤
आदि कवये का अर्थ ब्रम्हा कैसे हो सकता है, जो परमात्मा ब्रम्हा विष्णु व शिव के रुप लेकर सृष्टि करता हो तो वह भला कृष्ण तो कदापि नहीं हो सकते क्योंकि कृष्ण विष्णु के अवतार है तथा कृष्ण कर्म वश एक भील के तीर से मारा गया था | अत: पूर्ण परमात्मा तो कोई और है जिसकी जानकारी तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ने दिया है कि वह पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब है"
जवाब देंहटाएंअधिक जानकारी के लिए* ज्ञान गंगा* पुस्तक अवश्य पढ़े |
😄😄
हटाएंकबीर जी संत हैं कि भगवंत हैं
हटाएंसंत में तेज कहां से आता है
राम कृष्ण को साधारण पुरुष न मानें परिपूर्णतम अवतार है।
श्रीमद् भागवतम
हटाएंभागवत पुराण » स्कन्ध 1: सृष्टि » अध्याय 3: समस्त अवतारों के स्रोत : कृष्ण » श्लोक 28
श्लोक 1.3.28
एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ २८ ॥
शब्दार्थ
एते—ये सब; च—तथा; अंश—पूर्णांश; कला:—पूर्णांश के भी अंश; पुंस:—परम पुरुष के; कृष्ण:—भगवान् कृष्ण; तु—लेकिन; भगवान्—भगवान्; स्वयम्—साक्षात्; इन्द्र-अरि—इन्द्र के शत्रु से; व्याकुलम्—विचलित; लोकम्—सारे लोक को; मृडयन्ति—सुरक्षा प्रदान करते हैं; युगे युगे—विभिन्न युगों में ।.
अनुवाद
उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश (कलाएं) हैं, लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं। भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं।
रामपाल का अपना कुछ पता है ? पहले जेल से बाहर आने में ध्यान लगाए। "हत्यारा बलात्कारी"
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