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पर्व और परम्परा की आवश्यकता

पर्व और परम्परा : भारतीय दिव्य ज्ञानभण्डार की पहचान
किसी भी विषय के ज्ञान और उसके प्रायोगिक स्थिति – दोनों में सामंजस्य बनाने से ही वास्तविक अनुभूति की प्राप्ति होती है । भारतवर्ष की पहचान सदा से ही ज्ञान और उसके प्रयोग द्वारा प्राप्त अनुभवों के संग्रहण और भविष्य की पीढ़ियों को उसके संप्रेषित करने की समुचित व्यवस्था की प्राप्ति से रही है । इसी क्रम में पर्व और परम्परा की आवश्यकता भारतवर्ष में प्रमुखता से दर्शाई गई है किंतु वर्तमान काल में विडम्बना यही है, कि हम समसामयकि काल में चल रही शिक्षण पद्धति के दुष्परिणामों को भोग रहे हैं । हमारे पर्व और परम्परा से सम्बन्धित प्रसंगों के लिए एक कुत्सित शब्द का प्रयोग किया जा रहा है – Mythology, जिसका तात्पर्य काल्पनिक कथाओं से है । ऐसे ही तर्कों के कारण हमारी युवा पीढ़ी के हृदय में भारतीय पद्धति के प्रति अनास्था अंकुरित और परिलक्षित होती जा रही है । एक तरफ ये पाश्चात्य जगत का भारतवर्ष के दिव्य ज्ञान पर थोपा गया शब्द जो भारतवर्ष में रह रहे वासियों के हृदय में अपनी ही परम्परागत प्राप्त दिव्य ज्ञान के प्रति अनास्था उत्पन्न करती है, दूसरी तरफ हमें  हमारे संस्कृत वाङ्गमय में प्रयोग आने वाले शब्दों पर भी विचार करना चाहिये । संस्कृत वाङ्गमय में अमरकोश नामक संग्रह का विशेष स्थान है, उसे आप संस्कृत का Thesaurus  भी कह सकते हैं । उसमें एक पद है – मिथ्यादृष्टिर्नास्तिकता – अर्थात् नास्तिकता ही मिथ्यादृष्टि है, ऐसा बताया । एक तरफ पुरातन भाषा संस्कृत का दिव्य अमरकोश जो अनास्था को मिथ्याज्ञान कहता है और दूसरी तरफ नवीन भाषा अंग्रेजी का ज्ञान जो आस्था को मिथ्याज्ञान कहता है । अतः सिर्फ अंग्रेजी को आधार मानकर या वर्तमान ज्ञान को आधार मानकर हमारी पुरातन शब्दावली पर विचार करना या उसकी व्याख्या करना, यह भ्रमास्पद भी हो सकता है । भारतीय तथ्यों को समझने के लिए हमें हमारी पुरातन रहस्यमय ज्ञानभण्डार का स्वाध्याय करना अत्यन्त ही आवश्यक है । इसी सन्दर्भ में हम पर्व और परम्परा को भी समझने का प्रयास करेंगे ।
संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा की धातु कृ (करना) से बना है । इस धातु से तीन शब्द बनते हैं – प्रकृति (मूलभूत स्थिति), संस्कृति (परिष्कृत स्थिति) और विकृति (दोषयुक्त स्थिति) । अर्थात् मूलभूत स्थिति को जब परिष्कृत अर्थात् शुद्ध करके उपयोगी बना दिया जाये तो इसे संस्कृति कहते हैं । अंग्रेजी में संस्कृति के लिए कल्चर (Culture) शब्द का प्रयोग किया जाता है जो लैटिन शब्द कल्ट (Cult) से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना, या परिष्कृत करना औऱ पूजा करना । संक्षेप में, कल्चर (Culture) शब्द से आशय यह है किसी भी वस्तु को इस प्रकार से परिष्कृत करना कि वह हमार लिये उपयोगी हो सके । संस्कृति शब्द के समान ही कल्चर शब्द का प्रयोग अंग्रेजी भाषा में है । संस्कृति ही सभ्यता का निर्माण करती है और उसकी पहचान उस स्थली के पर्व और परम्परा से होती हैं । जब हम किसी विशेष घटना, जिसका सम्बन्ध किसी विशेष व्यक्ति या किसी स्थान या किसी सामाजिक स्थिति से होती है, उसके सम्बन्ध में किसी निश्चित अवसर पर उस व्यक्ति, स्थान या सामाजिक स्थिति की स्मृति में उत्सव करते हैं, तब उसे पर्व कहते हैं, इसके ज्ञान-प्रवाह को वैदिक आचार के नाम से सम्बोधित किया जाता है । उसी पर्व को भिन्न-भिन्न स्थानों पर उपस्थित भौगोलिक या सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर विभिन्न तरीकों से मनाने के तौर-तरीकों को ही परम्परा कहते हैं, इसके ज्ञान-प्रवाह को लौकिक आचार के नाम से सम्बोधित किया जाता है । अतः पर्व और परम्परा एक दूसरे के पूरक हैं ।
इस सम्बन्ध में भी कुप्रचार का प्रयोग अत्यधिक रूप से किया जाता है । हमारी भारतीय सांस्कृतिक व्यवस्था के सम्बन्ध में ऐसी कुचर्चा की जाती है, कि इसमें रूढ़िवादिता होने के कारण ही इसमें बहुत दोष हैं । दूसरी तरफ ऐसी भी चर्चा करी जाती है कि भारतीय समाज में बहुदेव पूजन व्यवस्था भटकाव का कारण है । मात्र थोड़ी सी गम्भीरता से ही यह परिलक्षित हो जाती है कि दोनों बातें परस्पर एक दूसरे से विपरीत हैं । अतः तथ्यहीन होने के कारण कुतर्क मात्र हैं । यदि यह व्यवस्था रूढ़ीवादी रहती तब बहुपूजन का विकल्प कैसे संभव था । रूढ़िवाद कहते किसे हैं ? सबसे पहले हमें यह समझने की आवश्यकता है । रूढ़िवाद का सम्बन्ध किसी भी एक व्यक्ति या क्षेत्र में चल रहे सिद्धान्तों का अक्षरशः पालन करना कहलाता है । इसका प्रभाव उसके अनुयायी के हृदय में अन्य सिद्धांतों या जीवन शैली के प्रति घृणा और उपेक्षा की उपस्थिति पर भी होती है । रूढ़ीवादी व्यक्ति अपने सिद्धांतों को श्रेष्ठ एवं अन्य के सिद्धांतों को कनिष्ठ मानकर उनकी उपेक्षा करता रहता है । किंतु भारतीय जीवनशैली में तो कुछ अन्य ही स्थिति दिखती है । यदि कुछ कालखण्ड में धर्म औऱ सम्प्रदाय के आधार पर होनेवाली वैमन्स्यता की चर्चा छोड़ दें, तो यहाँ पर सभी प्रकार के दर्शन और सिद्धांत का सम्मान और समन्वय दिखता है । इसी कड़ी में पर्व और परम्परा के बीच का सम्बन्ध भी है । उदाहरण के लिये दशहरा पर्व पर ही विचार कर लें । दशहरा की प्रासंगिकता नवदिनों तक नवरात्र् का व्रत और तदुपरांत दशहरा पर्व से हैं । इस पर्व को मनाने की परम्परा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग भी है और साथ ही साथ इसके आयोजन की परम्परा मे भेद कुलपरम्परा और गुरुपरम्परा के आधार पर भी देखने को मिलती है । यदि सूक्ष्मतर विचार करेंगे तो वैयक्तिक भिन्नता भी आधार दिखेगा । किसी-किसी गाँव में आपको नवदिनों तक रामायण जी का पाठ और उस पर आयोजित रामलीला या प्रवचन का आयोजन दिखेगा । गाँव के कई भक्त गण उस पाठ में सम्मिलित होंगे । दशहरा के दिन रावण दहन और भगवान के राज्याभिषेक के  उत्सव के बाद भण्डारा आदि का आयोजन रहता है । कहीं पर नव दिनों तक पण्डालों के भीतर भगवती दुर्गा की प्रतिमा की स्थापना की जाती है । दशहरा के दिन उनकी विदाई की यात्रा में हजारों भक्त झूमते गाते हुए उनकी प्रतिमा का विसर्जन किसी नदी या पवित्र तालाब आदि में करते हैं । कई बार विदाई के समय भक्तों की आँखों में आँसू होते हैं । ऐसा लगता है जैसे घर से किसी बहन-बेटी की विदाई की गई हो । विदाई के बाद ऐसी अनुभूति ही जीव का परमात्म तत्व से सांसारिक सम्बन्धों के आधार पर सम्बन्धन की अनुभूति प्रमाणित कराती है । कुछ भक्त नव रात्र पर्यन्त फलाहार करते हैं और नवमी की पूर्ति के बाद पारण करते हैं । कुछ  भक्त प्रतिपदा, अष्टमी आदि को विशेष रूप से व्रत रखते हैं । कुछ भक्त मात्र अष्टमी की निशापूजा और व्रत ही करते हैं । शाक्त परम्परा के भक्त नवरात्रों में बलिप्रदान भी करते हैं । (हमारा ध्येय बलि के प्रचार का नहीं अपितु नवरात्र के पर्व को मनाने के विभिन्न परम्पराओं की चर्चा से ही मात्र है ।) कुछ भक्त अपने घरों में दुर्गासप्तशती का नित्य पाठ करते हैं । कुछ भक्त अपने घरों में रामायण जी का पाठ करते हैं । कुछ भक्त अपने घरों में जगराते, भजन संध्या, कीर्तन, अखण्ड रामायण पाठ, अखण्ड कीर्तन, नवाह्न कीर्तन आदि का आयोजन करते हैं । कुछ भक्त नित्य कन्या-पूजन के उपरान्त कन्या भोजन करते हैं । कुछ भक्त किसी एक ही दिन कन्या-पूजनोपरान्त कन्या भोजन का आयोजन रखते हैं । कुछ भक्त घर में पण्डित जी को प्रतिपदा को बुलाकर कलश स्थापित करते हैं और नवरात्र पर्यन्त पूजन करके तदुपरांत पण्डित से विसर्जन करवाते हैं । इस प्रकार से कई स्तर से शारदीय नवरात्र और तदुपरांत दशहरा के आयोजन देखने को मिलते हैं । पर्व का सम्बन्ध तो विशेष करके दो अवसरों से हैं –
(1)    विजयदशमी (दशहरा) के अवसर पर भगवान श्रीराम ने रावण का वध किया था ।
(2)    भगवती दुर्गा ने महिषासुर-मर्दन की लीला इसी समय की थी ।
किंतु अपनी आर्थिक व्यवस्था, श्रद्धा, सामाजिक व्यवस्था, कुलपरम्परा, गुरुपरम्परा आदि कई विषयों पर विचार करने के कारण इस पर्व को मनाने की परम्परा में विभिन्नतायें दिखती रहती हैं ।
अब इन विभिन्नताओं को ही प्रायः आज के कुतार्किक लोग भेद की दृष्टि से प्रमाणित करते हैं । किंतु ऐसा नहीं । भारतीय सनातनी व्यवस्था में एक तरफ यदि राज्योपचार से पूजन की व्यवस्था है तो दूसरी तरफ प्रणाम मात्र से ही समस्त पूजन के फल की प्राप्ति है ।
सकृन्मनः कृष्णपदारविन्दयोः आविष्ट चेतो न भवाय कल्पते ।

अर्थात् एक बार भी भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द में मन लगाने से ही भवसागर के समस्त बंधन नष्ट हो जाते हैं और उस जीव को पुनः इस संसार में नहीं आना पड़ता । आशय यह है कि भारतीय सनातन परम्परा में स्वर्ण के बर्तनों में उपस्थित भोग सामग्री का यदि सम्मान है तो केले के पत्ते पर समर्पित कन्द-मूल का भी सम्मान बहुत ही है । अतः विभिन्न परिस्थितियों के कारण होने वाली परम्पराओं में भेद सामाजिक भेद को नहीं अपितु सामाजिक सामंजस्य को दिखाता है, कि हम किसी न किसी प्रकार से पर्व रूपी सामाजिक व्यवस्था में जुड़े रहते हैं । यह ठीक वैसी ही बात है, कि शादी तो गरीब की लाडली बेटी की भी होती है और अमीर की राजदुलारी की भी । अतः हमें हमारे ही समाज में फैले कुप्रचारकों से बचकर अपनी भारतीय विभिन्नताओं में विभिन्न परम्परा के आधार पर सामंजस्य की व्यवस्था को स्वीकार करके सम्मानपूर्वक अपने जीवन में अंगीकार करने की कोशिश करनी चाहिये । दिवाली के दिन दक्षिण में नारियल के तेल का दीपक हो या उत्तर के सामान्य परिवार में सरसों तेल का दीपक हो या किसी सम्पन्न के घर में घी का दीपक हो या किसी अनुष्ठानपरक के घर तिल के तेल का दीपक हो, किन्तु दीपक जलने जरूर चाहिये । इन पारम्परिक दीपकों की जगह मोमबत्ती और बिजली की लड़ियाँ जलाकर दुर्व्यवस्था का साथ नहीं देना चाहिये । आइये हम अपने भारतीय पर्व को मनाने की विभिन्न परम्पराओं का सम्मान करते हुए अपने भारत की गौरवमयी गाथा को प्रचारित करने का अनूपम कार्य करें । 

अपने विचार से हमें जरूर लाभान्वित करेंगे जिससे कि दास भविष्य में भी अन्य विषयों पर अपने लेख लिखकर जनसामान्य की सेवा कर सके ।
स्वामी श्रीवेंकटेशाचार्यजी, 
श्रीचरण आश्रम, वृंदावन 
+918958449929, +918579051030

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