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आत्मा को प्राप्त करने के लिये बल को प्राप्त करना आवश्यक


नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिङ्गात् । एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वांस्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ।। (मुण्डकोपनिषद – 3/2/4)
यह आत्मा बलहीनों के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती, न ही उसकी प्राप्ति के प्रयास में निरन्तरता की अनुपस्थिति में, न ही बिना किसी निश्चित मार्ग के किये हुए तपस्या से ही प्राप्त की जा सकती है । जो विद्वान इन उपायों के कारण ज्ञान की अनुभूति कर लेता है, उसे ही परम ब्रह्मधाम की प्राप्ति होती है ।
अतः साधक को सदैव ही बल की प्राप्ति की चेष्टा करते रहना चाहिये जिससे की उसे परमात्मा की प्राप्ति हो सके ।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ।। (मुण्डकोपनिषद – 3/2/3) 
यह आत्मा शास्त्रों के प्रवचन से प्राप्त नहीं हो सकती, न ही तीव्रस्मरण शक्ति से, न ही बहुत शास्त्रों के श्रवण से ही प्राप्त हो सकती है । जिसे वह स्वयं वरण कर लेती है, वह ही उस आत्मा की प्राप्ति कर पाती है, चुकि तब यह आत्मा अपने स्वरूप को स्वयं ही प्रकट कर देती है ।
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । 
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् । (मुण्डकोपनिषद – 3/2/8) 
जिस प्रकार से नदियां अपने नाम और रूप को छोड़कर समुद्र की ओर चलती हुई समुद्र में ही मिल जाती हैं । ठीक उसी प्रकार से विद्वान साधक अपने नाम-रूपादि का त्याग करके दिव्य परात्पर ब्रह्म की प्राप्ति कर लेता है ।
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति । 
तथा तवामी नरलोकवीराविशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति । (श्रीमद्रभगवद्गीता – 11/28)
अर्जुन श्रीभगवान के विशाल रूप को देखकर कहते हैं - जिस प्रकार से नदियाँ के बहुत से जल प्रवाह समुद्र की ओऱ मुख किये दौड़ जाते हैं, वैसे ही ये नरलोक के वीर आपके सब ओर से प्रज्वलित मुखों में घुस जाते हैं । अर्थात्, जीव को अपनी स्थिति का त्याग करना ही पड़ता है, यद्पि वह कितना भी प्रयास करके स्वयं को साभिमान अवस्थित क्यों न समझता हो ।
महाभारत के उद्योग पर्व में बल के प्रकार का उपदेश किया गया है ।
बलं पञ्चविधं नित्यं पुरुषाणां निबोध मे ।
यत्तु बाहुबलं नाम कनिष्ठं बलमुच्यते ।।48।।
अमात्यलाभो भद्रं ते द्वितीयं बलमुच्यते ।
धनलाभस्तृतीयं तु बलमाहुर्जिगीषवः ।।49।।
यत्त्वस्य सहजं राजन्पितृपैतामहं बलम् ।
अभिजातबलं नाम तच्चतुर्थं बलं स्मृतम् ।।50।।
येन त्वेतानि सर्वाणि सङ्गृहीतानि भारत ।
यद्बलानां बलं श्रेष्ठं तत्प्रज्ञाबलमुच्यते ।।51।।
महाभारत उद्योगपर्व – 37/48
धर्मराज युधिष्ठिर ने जब विदुर जी से यह पूछा कि सुनने में ऐसा आता है कि मनुष्य की आयु सौ वर्ष की होती है किन्तु वह उसकी प्राप्ति नहीं कर पाता । मनुष्य अपनी शतायु अवस्था की  प्राप्ति कैसे कर सकता है ?
तब उसी प्रसंग में विदुर जी ने पाँच प्रकार के बल के अर्जन की बात कही है । विदुर जी ने कहा है कि बल पाँच प्रकार के ही होते हैं । वह मैं तुम्हें बताता हूँ । जो सबसे कनिष्ठ बल है उसका नाम बाहुबल है । दूसरा बल अच्छे मन्त्रणा देने वाले मन्त्रीगण की प्राप्ति का है । तीसरे बल के रूप में धनलाभ को कहा गया है । जो पितामह (दादा) के समय ही सहज रूप से प्राप्त बल है उसे चौथा अभिजात बल समझना चाहिये । हे भारत (युधिष्ठिर) जिनके द्वारा इन सभी बलों की प्राप्ति हो जाती है वह सर्वदा ही विजय की प्राप्ति करता है । इन सभी बलों से भी जो श्रेष्ठ बल है, उसे प्रज्ञा बल कहते हैं ।
श्रीरामचरितमानस में विजयरथ प्रसंग में भगवान श्रीराम ने भी विजय रथ के चार घोड़ों में जो सबसे प्रथम घोड़ा की कल्पना की है, वह बल नामक घोड़ा ही है । यथा-
बल बिबेक दम परहित घोरे । क्षमा कृपा समता रजु जोरे ।। (श्रीरामचिरतमानस /लङ्का काण्ड/79/6)

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