#दान #योग्यता
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एक बार रात्रि के नौ बजे किसी काम से वृन्दावन में परिक्रमा मार्ग पर किसी आगन्तुक श्रद्धालु की प्रतिक्षा कर रहा था । ठण्ड बहुत जोर की थी । लगभग 5-6 डिग्री । कुछ लोग अलाव लगा कर अग्नि का सेवन कर रहे थे । मुझे भी इसका लाभ ले लेना चाहिये । ऐसा विचार करके, उस ओर बढ़ चला । जलती अग्नि ठण्डक को दूर कर रही थी । उन्हीं मनानुभावों में से किसी ने हमसे एक प्रश्न पूछ लिया कि दान किसे करें ?
मैंने उसकी ओर बड़े ही ध्यान से देखा और उसकी कलियुगी जिज्ञासा का रहस्य समझ कर उससे यथोचित उत्तर भी दे दिया । लेकिन यह प्रश्न मेरे मन में बारंबार उठता ही रहा । वास्तविक में यह प्रश्न समसामयिक है और विचारणीय है । यद्यपि दान के ऊपर श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने स्वयं अपने श्रीमुख से स्पष्ट व्याख्या प्रदान किया है किन्तु सामान्य जनमानस गीता जी के उन रहस्यों को समझ नहीं पा रहा है । समझे भी कैसे, अपनी पेट की आग को मिटाने के चक्कर में उपदेशों को तोड़-मरोड़कर पेश करने की परम्परा चल पड़ रही है । शास्त्रीय प्रमाणों से दूर भागता धर्माचार्य स्वयं तो व्यग्र और अस्थिर चित्त वाला है ही, साथ ही अपने अनुयायियों को भी भटका रहा है । आइए कम शब्दों में समझने की कोशिश करें, कि दान की विधि क्या है ?
दान करने की प्रक्रिया में तीन भाग है - दान योग्य पदार्थ, दानी और भोक्ता । इन सभी विषयों में दानी का विशेष स्थान है । सबसे पहले यह विचारें, कि दान क्या है? शास्त्रगत भोग्य पदार्थों में से किसी भोग्य पदार्थ का किसी अन्य के प्रति निरापेक्षित होकर प्रदान करने की प्रक्रिया को दान कहते हैं । केवल देने मात्र का विचार दान नहीं होता । जैसे किसी के भोजन में विष मिला दें और कहें, कि हमने तो विष का दान किया है । यह धर्म है । ऐसा विचार तो सर्वथा अशास्त्रीय और विक्षिप्त अवस्थआ का परिचायक है । यह सर्वथा अधर्म है । अतः देने योग्य पदार्थ का शास्त्रीय दृष्टि से व्यवहारानुकूल होना भी आवश्यक है ।
अब जब देश और काल के अनुसार शास्त्रीय मर्यादा में दान करने योग्य पदार्थ का निर्णय हो गया तब दानी उस पदार्थ के योग्य पात्र का चयन करे । जैसे अन्न किसी गरीब को, बना हुआ भोजन किसी भूखे को, औषधी किसी रोगी को, गरम कपड़े किसी ठण्ड में ठिठुरते को आदि । इस प्रकार से पात्र का चयन करने करके आवश्यक सामग्री किसी जरूरतमंद को दिया जाना ही श्रेयस्कर है ।
फिर शंका होती है, कि किसी ब्राह्मण को दान दिया जाना उचित है या नहीं? सर्वप्रथम, सत्य तो यह है, कि प्रायः कोई भी यजमान किसी भी ब्राह्मण को दान नहीं दे रहा होता है । वह किसी न किसी पूजन अनुष्ठान का कार्य करवाता है, तत्पश्चात् उसकी मानदेय स्वरूप में दक्षिणा प्रदान करता है । जो उसकी योग्यता के आधार पर निर्भर करता है । सत्यनारायण व्रत कथा करके दी हुई अन्न-धन की राशि को दान नहीं दक्षिणा कहेंगे । दान तो तब होता है, जब आप उन ब्राह्मण देवता से आप एक आशीर्वादात्मक मंत्र की भी इच्छा नहीं करते । चलो मान लिया, कि ब्राह्मण देवता के प्रति दान का विचार बन जाए । तब क्या करें? क्यों करें?
सनातन धर्म का वहा बचा हुआ अवशेष जिसने अभी तक सनातन धर्म के स्वरूप को बचाये रखने का अद्भुत साहस किया है - उसी का नाम है वैदिक ब्राह्मण । कलियुगी आधुनिकता की अंधियारी रात में दीपक की लौ की भांति टिमटिमाता प्रकाश है - वैदिक ब्राह्मण । ब्राह्मण को दान करते समय यह न देखें कि उसकी धोती फटी है नयी है । वह भूखा है या भरा हुआ पेट वाला । उसका मकान है टूटा हुआ छत । आप किसी के ब्राह्मण के पास जाने से पहले यह सोंच लेना कि, यदि आपको सनातन धर्म के स्वरूप की चिन्ता है, यदि आपको वैदिक धर्म की रक्षा की चिन्ता है, यदि आपको वैदिक ज्ञान की रक्षा की चिन्ता है, यदि आपको भारतीयता के रक्षा की चिन्ता है, यदि आपको भारतीय संस्कृति की रक्षा की चिन्ता है, यदि आपको भारत के पहचान की चिन्ता है, यदि इतना विशाल चिन्तन का स्तर है, - तभी किसी ब्राह्मण को दान देने के लिये अपने घर से निकलना । क्योंकि वैदिक ब्राह्मण की धोती भले पुरानी हो, लेकिन वह संगमरमर के मकान में भी स्वाभिमान की आशंका होने पर पैर नहीं रखेगा । क्योंकि उसे यह पता है, कि वैदिक ब्राह्मण का स्वाभिमान सिर्फ उसका स्वाभिमान नहीं अपित समग्र सनातन धर्म का शान-मान-गुमान है । भला वह अपने पेट की भूख के कारण समस्त सनातन धर्म के गौरव को गिरने कैसे देगा । इन मुस्कुराहट के पीछे की आर्थिक लाचारी को आप कभी नहीं समझ पाओगे । बड़े-बड़े आक्रांताओं ने इस मुस्कुराहट का नाश करना चाहा । लेकिन सनातन धर्म की प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतु आर्थिक विपन्न होने पर भी वैदिक ब्राह्मण स्वाभिमान से सम्पन्न रहता है ।
क्या विचार किया आपने? क्या किसी ब्राह्मण को दान कर सकोगे आप?
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