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गणेश चतुर्थी : गणेश जन्म-विवाह की कथा और उनके पूजन की महिमा ।

 


गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम् ।

उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम् ।।

गणेशजन्म की कथा

एक समय की बात है कि, पार्वती जी जया, विजया आदि अपनी सखियों के साथ कैलाश मैं बैठकर आपस में कुछ चर्चा कर रहीं थीं । उसी समय यह चर्चा चल पड़ी कि यद्यपि नंदी, भृङ्गी आदि गण हमारे ही गण हैं किन्तु वे पूर्णतः शिव की आज्ञा के अधीन हैं । स्वतन्त्र रूप से हमारा कोई गण नहीं है । अतः हे शिवा आपको अपने लिए स्वतंत्र रूप से एक गण की रचना करनी चाहिए । यह चर्चा यहीं समाप्त हो गई । कुछ दिनों बाद एक बार पार्वती जी स्नान कर रहीं थीं तब उन्होंने द्वार पर नन्दी को बिठा रखा था । तभी शिव उन्हें डांटकर भीतर प्रवेश कर गए थे । स्नानक्रीड़ा में संलग्न पार्वती लज्जित हो गईं और तुरन्त उठ गयीं । तब उनके मन में सखियों के द्वारा कही हुई विचार तार्किक जान पड़ी । कुछ ही समय बाद एक बार स्नान करते समय भगवती पार्वती इस विचार को चरितार्थ करने को उद्यत हुईं । उनके मन में यह विचार आने लगा कि मेरा भी कोई अपना सेवक होना चाहिए, जो श्रेष्ठ हो तथा मेरी आज्ञा के बिना रेखामात्र भी इधर से उधर विचलित न हो । वह मेरी सुरक्षा करने में समर्थ हो । ऐसा विचार कर भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए उन्होंने अपने शरीर में लगे उबटन से एक पुरुष का निर्माण कर दिया ।

लम्बोदरं महाबाहुं चारुवक्त्रं मनोहरम् । त्रिनेत्रं रक्तवर्णं च मध्याह्नार्कसमप्रभम् ।। (देवीपुराण 35/8)

उस बालक के बड़े हाथ, लम्बा सा पेट, सुन्दर मनोहर मुखमण्डल, तीन नेत्र, रक्तवर्ण और मध्याह्नकालीन सूर्य के समान चमकता आभामण्डल था । जगदम्बा का वह पुत्र सभी गणों का स्वामी और साक्षात् नारायणरूप ही था । तत्पश्चात् भगवती ने उसे दूध पिलाते हुए कहा – हे पुत्र ! तुम मेरे पुत्र हो और कोई दूसरा मेरा अपना पुत्र नहीं है ।

गणेश जी का रुद्रगणों के साथ भीषण युद्ध

तब उस पुरुष ने भगवती पार्वती को नमस्कार करते हुए बोला – माता प्रणाम । आपका क्या अभीष्ट है, उसे कहें । मैं उसे शीघ्र पूरा करूँ ।

तब माता पार्वती ने उनसे बोला – हे पुत्र! तुम मेरे द्वारपाल बनो, तुम पुत्र होने के कारण मेरे सर्वस्व हो ।

विना मदाज्ञां मत्पुत्र नैवायान्मद्गृहान्तरम् । कोऽपि क्वापि हठात्तात सत्यमेतन्मयोदितम् ।। (शिवमहापुराण रुद्रसंहिता 4/13/26)

हे पुत्र! मेरी आज्ञा के बिना कोई भी मेरे घर के भीतर न आने पावे, चाहे वह कितना भी हठ करे, यह मैं तुमसे सत्य-सत्य कहती हूँ । इतना कहकर भगवती पार्वती ने आलिंगन करके प्रसन्न होकर उन्हें एक लाठी हाथ में पकड़ाकर द्वारपाल के पद पर नियुक्त कर दिया । एक बार द्वारपाल के पद पर गणेश उपस्थित हो गए और माता पार्वती अपनी सखियों के साथ स्नान करने चली गईं । तभी लीलाविशारद शिव वहाँ उपस्थित हो गए । किन्तु गणेश जी ने तो उन्हें डंडा दिखाकर रोक दिया । यद्यपि शिव ने उन्हें अपना परिचय दिया फिर भी गणेश जी ने उन्हें भीतर जाने का मार्ग न दिया । तब शिव थोड़ी दूर पर जाकर ठहर गए और अपने गणों को भेजा किन्तु रुद्रगणों के द्वारा बारंबार समझाने पर भी गणेश जी न माने । तब उन्होंने युद्ध का भय दिखाया । तब गणेशजी ने उनसे कहा – वर्तमान काल में, मैं माता पार्वती का द्वारपाल हूँ और आप शिव के गण हैं । यदि आप भी अभी माता पार्वती के द्वारपाल होते तब आप भी यही कर रहे होते जो मैं कर रहा हूँ इसीलिये आपसे निवेदन है कि मुझे अपने कर्त्तव्य का पालन करने दें ।

तब रुद्रगणों ने जाकर शिवजी से ये बातें कहीं । शिव ने कहा – तुम सभी हमारे गण हो और वह बालक पार्वती का गण है, इसीलिए युद्ध अनुचित है । किन्तु यदि हम नम्रता प्रदर्शित करें, तो संसार यही कहेगा कि शिव स्त्री के अधीन है और उसके गण निर्बल हैं ।

कृते चैवात्र कर्त्तव्यमिति नीतिर्गरीयसी । एकाकी स गणो बालः किं करिष्यति विक्रमम् ।। (शिव महापुराण रुद्रसंहिता 4/14/59)

जो जैसा करे, उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, यही सर्वश्रेष्ठ नीति है । वह गणेश तो अकेला है, विशेष कर अभी बालक है, वह तुम लोगों के सामने क्या पुरुषार्थ दिखायेगा । जो होनहार है, वह होकर ही रहेगा ।

जब रुद्र गण युद्ध के लिए तैयार होकर गणेश जी के समक्ष प्रस्तुत हुए तब गणेश जी ने उनसे कहा – आप सभी मुझसे युद्ध में श्रेष्ठ हैं तथा मैं तो अभी बालक हूँ फिर भी मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं रहूँगा । संभव है मैं हार जाऊँ किन्तु फिर भी बालक होने के कारण मुझे लाज नहीं होगी । मेरे तथा आपके बीच के युद्ध से होने वाली हार या जीत की लाज भवानी तथा शङ्कर की लाज ही होगी ।

इसके पश्चात् भयंकर युद्ध प्रारंभ हो गया । युद्ध इतना भयानक हुआ कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव को भी युद्ध के लिये उपस्थित होना पड़ा । गणेश जी के सामने सारे वीर पराजित होते चले जा रहे थे । भगवती पार्वती की कृपा से गणेश जी सब पर भारी पड़ रहे थे । शिव के साथ भी भयानक युद्ध हुआ ।

तमप्यपातयद् भूमौ परिघेण गणेश्वरः । हताः पञ्च तथा हस्ताः पञ्चभिः शूलमाददे ।। (शिव महापुराण रुद्रसंहिता 4/16/21)

गणेश जी का शिरश्छेदन

एक बार गणेश्वर ने अपने परिघ के प्रहार से शिव के धनुष को तथा उनके पाँच हाथों को काट दिया । तब शङ्कर जी ने शेष अपने पाँच हाथों से ही अपने त्रिशूल को ग्रहण किया । युद्ध पुनः प्रारंभ हो गया । उचित समय जानकर शिव ने अपने हाथ में त्रिशूल लेकर पीछे से आकर उस त्रिशूल से गणेश का शिर काट डाला । तब रुद्रगणों की सेना तथा देवताओं की सेना निश्चिन्त हो गई । वे लोग प्रसन्नता के साथ मृदङ्ग, शंख आदि बाजे बजाने लगे । इधर नारद जी ने जाकर सारा वृत्तान्त भगवती पार्वती को कह सुनाया । इतना सुनते ही भगवती पार्वती बहुत दुखी हो गईं । वे दुख से कातर होकर गर्जना करने लगीं । भगवती पार्वती ने कहा –

मत्सुतो नाशितश्चाद्य देवैः सर्वैर्गणैस्तथा । सर्वांस्तान्नाशयिष्यामि प्रलयं वा करोम्यहम् ।। (शिवमहापुराण रुद्रसंहिता 4/17/6)

इन देवताओं और गणों ने मिलकर मेरे पुत्र को मार डाला । अतः या तो मैं इन सबका नाश कर डालूँ या प्रलय ही उपस्थित कर दूँ । तब भगवती पार्वती ने करोड़ों शक्तियों का निर्माण कर दिया । उन सबसे भगवती पार्वती ने कहा – तुम सब जाकर देवताओं की सेना में प्रलय उपस्थित कर दो । इसके बाद कराली, कुब्जा, खञ्जा आदि अनेकों शक्तियों ने देवताओं की सेना में हाहाकार मचा दिया । भगवती पार्वती क्रोध की मूर्ति बन बैठी थीं । युद्ध की शांति के लिये सारे देवता मंत्रणा करने लगे किन्तु क्रोध से भरी साक्षात् जगदम्बा के समक्ष भयभीत होकर कोई भी देवता जाने को तैयार न हुए । तब नारद जी एवं अन्य ऋषिगण भगवती पार्वती के पास जाकर विविध स्तुति करने लगे-

जगदम्ब नमस्तुभ्यं शिवायै च नमोऽस्तु ते । चण्डिकायै नमस्तुभ्यं कल्याण्यै च नमोऽस्तु ते ।। (शिवमहापुराण रुद्रसंहिता 4/17/32)

हे जगदम्ब! तुम्हें नमस्कार है; हे शिवे! तुम्हें नमस्कार है; हे चण्डिके! तुम्हें नमस्कार है; हे कल्याणि! तुम्हें नमस्कार है । बारंबार स्तुति करने पर भगवती प्रसन्न हो गईं और तब उन्होंने बोला –

मत्पुत्रो यदि जीवेत तदा संहरणं न हि । यथा हि भवतां मध्ये पूज्योऽयं च भविष्यति ।। (शिवमहापुराण रुद्रसंहिता 4/17/42)

यदि मेरा पुत्र जीवित हो जाए और तुम लोगों के बीच में प्रथम पूज्य हो जाए तो यह संहार नहीं होगा । यदि तुम लोग आज से इसको सबका अध्यक्ष बना दो तो लोक में शान्ति हो सकती है, अन्यथा तुम लोगों को सुख की प्राप्ति नहीं होगी । इसके बाद नारद जी एवं सारे ऋषिगण देवताओं के पास गए । इस पर मंत्रणा होने लगी । 

गणेश जी का गजवदन स्वरूप, गणाध्यक्ष पद पर अभिषेक और उनका पूजन विधान

तब शिवजी ने उन सबसे कहा – आपलोगों को उनका प्रस्ताव स्वीकार करके संसार का कल्याण करना चाहिये । तुम सब लोग उत्तर दिशा की ओर जाओ, सर्वप्रथम तुम्हें जो मिले उसका शिर लाकर इन गणेश के शरीर में जोड़ दो । इसके बाद सारे देवता गणेश के शरीर के विधिपूर्वक प्रक्षालन किया ।

पूजयित्वा पुनस्ते वै गताश्चोदङ्मुखास्तदा । प्रथमं मिलितस्तत्र हस्ती चाप्येकदन्तकः ।। (शिवमहापुराण रुद्रसंहिता 4/17/49)

तत्पश्चात् उस शरीर का पूजन करके उत्तर दिशा की ओर चले और मार्ग में सबसे पहले उन्हें एक दाँत वाला हाथी मिला । उसी का शिर लाकर गणेश के शरीर में जोड़ दिया । तत्पश्चात् अभिमंत्रित जल से गणेश जी जीवित हो गए और सोतु हए से जागने के समान उठ बैठे । सभी देवताओं ने उनका गणाध्यक्ष के पद पर अभिषेक किया । माता पार्वती ने उनको गोद में बिठा कर आलिंगन किया और उन्हें बहुत से वरदान दिए ।

आनने तव सिन्दूरं दृश्यते साम्प्रतं यदि । तस्मात्त्वं पूजनीयोऽसि सिन्दूरेण सदा नरैः ।।

पुष्पैर्वा चन्दनैर्वाऽपि गन्धेनैव शुभेन च । नैवेद्येन सुरम्येण नीराजेन विधानतः ।।

ताम्बूलैरथ दानैश्च तथा पराक्रमणैरपि । नमस्कार-विधानेन पूजां यस्ते विधास्यति ।। (शिवमहापुराण रुद्रसंहिता 4/18/9-11)

हे पुत्र! इस समय तुम्हारे मुख पर यह सिन्दूर दिखाई देता है, इसलिये जो मनुष्य सिन्दूर, चन्दन, फूल, सुगन्धित द्रव्य, उत्तम नैवेद्य, विधानपूर्वक आरती, पान, दान, परिक्रमा और नमस्कार से तुम्हारी पूजा करेंगे, उनको सभी प्रकार की सिद्धियाँ निःसंदेह ही प्राप्त होंगी । उनके समस्त विघ्न नष्ट हो जायेंगे । तब ब्रह्मा-विष्णु और महेश इन तीनों ने एक साथ हो बहुत सारे वरदान दिये ।

एतत्पूजां पुरा कृत्वा पश्चात् पूज्या वयं नरैः । वयं च पूजिताः सर्वे नाऽयं चापूजितो यदा ।।

अस्मिन्नपूजिते देवाः परपूजा कृता यदि । तदा तत्फलहानिः स्यान्नात्र कार्या विचारणा ।। (शिवमहापुराण रुद्रसंहिता 4/18/23-24)

मनुष्य पहले इनकी पूजा करेंगे तत्पश्चात् हम लोगों की पूजा करेंगे । यदि इनकी पूजा किये बिना ही कोई हमलोगों की पूजा करेगा तो हम लोग पूजित होने पर भी अपूजित ही रहेंगे । इतना ही नहीं, हे देवताओं! यदि कोई इनकी पूजा किये बिना किसी भी अन्य देवता की पूजा करेगा तो उसे पूजा का फल प्राप्त न होगा, इसमें सन्देह नहीं । इसके बाद शिवजी ने कहा – हे गणेश! आप हमारे समस्त गणों के गणाध्यक्ष  होगे और सबके पूजनीय होगे ।

चतुर्थ्यां त्वं समुत्पन्नो भाद्रे मासि गणेश्वर! । असिते च तथा पक्षे चन्द्रस्योदयने शुभे ।।

प्रथमे च तथा यामे गिरिजायाः सुचेतसः । आविर्बभूव ते रूपं यस्मात्ते व्रतमुत्तमम् ।। (शिवमहापुराण रुद्रसंहिता 4/18/35-36)

हे गणेश्वर! तुम भादों के महीने में कृष्ण पक्ष की चौथ को चन्द्रोदय काल में प्रगट हुए हो । रात्रि के प्रथम प्रहर में गिरिजा के चित्त से तुम्हारा प्राकट्य हुआ है, इसलिए उसी दिन तुम्हारा उत्तम व्रत होगा । सर्व सिद्धि के लिये उसी दिन से तुम्हारे निमित्त व्रत को प्रारंभ करना चाहिए । एक वर्षपर्यन्त जब भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की तिथि आवे तो तब तक वह मेरी आज्ञा से व्रत करे । संसार के समस्त सुखों की प्राप्ति के लिये प्रत्येक चतुर्थी तुम्हारा व्रत करे । मार्गशीर्ष (अगहन) मास के महीने में रमा नामक चतुर्थी के दिन प्रातःकाल स्नान कर यह व्रत ब्राह्ण को समर्पित करे । चतुर्थी के दिन उपवास कर रात्रि के प्रथम प्रहर उपस्थित होने पर स्नान करने के उपरान्त दूर्वा से गणेश का पूजन करना चाहिए । धातु से, मूंगे से, श्वेत अर्क से, अथवा मृत्तिका से गणेश जी की मूर्त का निर्माण करे । फिर उनकी प्रतिष्ठा कर संयम पूर्वक नाना प्रकार के दिव्य गन्ध, चन्दन तथा पुष्पों से उनकी पूजा करे । गणेश पूजन के लिये जो दूब हो, वह एक बित्ते की हो, तीन गाँठ से युक्त हो और मूल रहित हो । इन लक्षणों से युक्त एक सौ एक दूर्वा से गणेश जी का पूजन करे अथवा इक्कीस दूर्वा से धूप, दीप तथा नाना प्रकार के नैवेद्य देकर गणेश जी का पूजन करे । ताम्बूल आदि उत्तम सामग्री से तुम्हारी पूजन करके स्तुतिपूर्वक प्रणाम करे । इस प्रकार तुम्हारा पूजन कर बालचन्द्रमा की पूजा कर, उन्हें अर्घ्यदान देना चाहिए । फिर ब्राह्मणों को मिष्ठान्न, मोदकादि भोजन करा कर स्वयं भी मधुर भोजन करना चाहिए । इस प्रकार से एक वर्ष पूर्ण होने पर उद्यापन करना चाहिये । उद्यापन में बारह ब्राह्मणों को भोजन करावे तथा एक घड़े पर गणेश जी की मूर्ति स्थापित कर पूजन करनी चाहिए । वेदी पर अष्टदल बनाकर वेद-विधि से होम करे, किन्तु कंजूसी न करे । फिर मूर्ति के आगे दो स्त्रियों (कन्या) और दो बटुकों की विधिपूर्वक पूजा कर आदर से उन्हें भोजन करावे । रात्रि जागरण करे । प्रातःकाल पूजन कर फिर गणेश जी से पुनः आने की प्रार्थना कर उनका विसर्जन करे । बालक से आशीर्वाद ग्रहण करे तथा उसी से स्वस्तिवाचन भी करावे । व्रत की  सम्पूर्णता के लिए पुष्पाञ्जलि समर्पित करे । तदनन्तर नमस्कार करें और अन्य कार्य सम्पन्न करे ।

हे गणेश्वर! जो श्रद्धा के साथ यथाशक्ति सिन्दूर, चन्दन, चावल एवं केतकी के पुष्प तथा अनेक उपचारों से गणेश की पूजा करेंगे, उनकी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होगी और उनके सारे विघ्न नष्ट हो जाएंगे ।

देवीपुराण में शिव जी ने कहा है कि – हे गणेश्वर! अनजाने में इस शूल से मैंने आपका सिर काट डाला, इसलिये मैं आपका अपराधी हूँ । द्वापरयुग के अन्त में वसुदेव के घर में देवकीनंदन रूप में जब आप अवतरित होंगे तब आपके साथ शोणितपुर में मेरा संग्राम होना निश्चित है, उस रणभूमि में सब लोगों के सामने ही मैं आपके द्वारा शूलसहित अवश्य ही स्तम्भित कर दिया जाऊंगा । (देवीपुराण के आधार पर गणेश नारायण के ही अवतार हैं । यह युद्ध प्रसंग श्रीमद्भागवत में विस्तार के साथ उपस्थित है ।)

गणेश जी की मातृ-पितृ भक्ति

एक समय की बात है, कि शिव-पार्वती अपने दोनों पुत्रों की उत्तम लीला को बारम्बार देखकर प्रसन्न हो रहे थे । आपस में दोनों ने विचार किया कि दोनों पुत्रों की विवाह कर दी जानी चाहिए । विवाह की चर्चा सुनकर दोनों पुत्रों ने कहा कि – पहले मैं करूँगा । पहले मैं करूँगा । इस बालविनोद से शिव-पार्वती बड़े आनन्दित हुए और विवाद को सुलझाने की युक्ति पर विचार करने लगे । फिर उन्होंने दोनों पुत्रों से कहा – तुम दोनों पुत्र समान भाव से हमें प्रिय हो । हमने तुम्हारे लिए एक विशेष निर्णय लिया है, कि तुम दोनों में जो कोई भी पृथ्वी की परिक्रमा कर पहले चला आयेगा उसी को विवाह का प्रथम शुभ लक्षण प्राप्त होगा । तब महाबली कार्तिकेय बड़ी तत्परता से चल पड़े । गणेश जी ने विचार करना प्रारम्भ किया कि मुझसे तो इतनी बड़ी दौड़ संभव न हो सकेगा । कुछ विचार करके उन्होंने अपने माता-पिता को स्वयं के द्वारा तैयार किए एक आसन पर बैठने के लिए निवेदन किया । तब शिव-पार्वती ने गणेशजी द्वारा निवेदित आसन को स्वीकार किया । गणेशजी ने उन दोनों का पूजन किया फिर बारम्बार उनकी परिक्रमा की, इस प्रकार सात परिक्रमा तथा सात बार प्रणाम किया । माता-पिता के द्वारा उन्हें परिक्रमा के लिए जाने पर गणेशजी ने कहा, कि वेदों, शास्त्रों और धर्मग्रन्थों में यही निर्णय आया है कि –

पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रक्रान्तिं च करोति यः । तस्य वै पृथिवीजन्यफलं भवति निश्चितम् ।। (शिवमहापुराण रुद्रसंहिता 4/19/39)

जो माता-पिता का पूजन कर उनकी परिक्रमा कर लेता है उसे पृथ्वी परिक्रमा का निश्चित फल प्राप्त होता है । जो पुत्र माता-पिता को छोड़कर तीर्थ करने के लिये जाता है, उसको मातृ हत्या एवं पितृ हत्या जैसा पाप लग जाता है । माता पिता का चरण ही पुत्र के लिये सबसे बड़ा तीर्थ है इसीलिए उनकी सेवा करे, अन्य तीर्थ तो दूर जाने से क्लेश से प्राप्त होते हैं । इसीलिए मैंने सात बार पृथ्वी की परिक्रमा कर ली है । अब आप दोनों विचार कर जो श्रेष्ठ हो, उसे करें । तब शिव-पार्वती बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा-

बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम् । कूपे सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः ।। (शिवमहापुराण रुद्रसंहिता 4/19/52)

जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल भी है । बुद्धिहीन के पास बल कहाँ से प्राप्त होगा । देखो, बुद्धि के बल से किसी खरगोश ने मदोन्मत्त सिंह को कुएँ में डाल कर नष्ट कर दिया । 

गणेश जी का विवाह

तब शिव-पार्वती ने विश्वरूप (विश्वकर्मा) प्रजापति की दोनों बेटी सिद्धि-बुद्धि के साथ गणेशजी का विवाह करवा दिया । गणेशजी को सिद्धि से क्षेम नामक पुत्र तथा बुद्धि से लाभ नाम पुत्र की प्राप्ति हुई । कुछ समय बाद कार्तिकेय की पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटे तब उन्हें इन सारी बातों का संज्ञान हुआ । क्रुद्ध होकर कार्तिकेय जी क्रौञ्च पर्वत पर चले गए । तब से कार्तिकेय जी वहीं रहते हैं और उन्हें कुमार नाम से स्मरण किया जाता है । कार्त्तिक मास में कृत्तिका नक्षत्र आने पर क्रौञ्च पर्वत पर कुमार का दर्शन करने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है और उनकी समस्त कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं । पुत्र वियोग से दुखी होती भगवती पार्वती को देखकर महादेव अपने अंश रूप में मल्लिकार्जुन रूप में क्रौञ्च पर्व पर स्थित हो गए । कुमार कार्तिकेय वहां से तीन योजन की दूरी पर विराजित हैं । प्रत्येक अमावस्या को महादेव कुमार के दर्शनार्त जाते हैं और प्रत्येक पूर्णिमा को माता पार्वती उनको दर्शन के लिए जाती हैं ।

।। ॐ गं गणपतये नमः ।।

 

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