जे गावहिं यह चरित सँभारे । तेइ येहि ताल चतुर रखवारे ।।
संप्रति श्रीभगवान के यशोगान करने की नित्य ही आधुनिकता से ओत-प्रोत ऩई-नई विधियों के माध्यम से श्रीभगवान के यशगाथा गाने की परिपाटी सी चल पड़ी है । ऐसे में हमारी नई पीढ़ी के प्रेमीगण कभी कभी भ्रमित से हो पड़ते हैं कि श्रीभगवान के यशोगान की सही विधि क्या हो ? हमें किन बातों पर किसि भी परिस्थिति में विशेष ध्यान रखनी चाहिये ? बाबा तुलसी ने इन्हीं प्रश्नों के प्रति इशारा करते हुये कहा है कि श्रीभगवान के यशोगान की रखवारी वही कर सकता है जो इस चरित्र का गान संभल कर करे । विधियाँ कई हो सकती हैं –
हरि अनंत हरि कथा अनंता । कहहीं सुनहिं बहुबिधि सब संता ।। (श्रीरामचरितमानस/बा/140)
किंतु रहस्य की बात यह है कि, बाबा तुलसी ने अनेकानेक विधियों को स्वीकार किया है किन्तु उन सभी विधियों में संभलकर ही श्रीभगवान के यशोगान को करने का विचार रखा है । हमारी नई पीढ़ी के कथा प्रसंग करनेवालों को यह विचार करने की आवश्यकता है कि आधुनिकता के इस दौर में जहाँ नित्य ही नई-नई संसाधनों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है, वहाँ किस विशेष भाव या अवस्था को संभालने की ओर बाबा तुलसी सावधान कर रहे हैं ? पेड़ के नीचे, नदी किनारे या किसी देवालय में होने वाली कथा अब एयरकंडिशन हॉल में होने लगी है । नीचे बैठ कर सुनने की जगह आरामदायक सोफे पर बैठ कर कथा सुनने की परिपाटी चल चुकी है । ऐसे में किस चीज को संभालकर रखने की ओर बाबा तुलसी ने ध्यान दिलाया है । आइये इसी पर अनुसंधान करते हुये हम वर्तमान काल में भी संतों के मतानुसार श्रीभगवान के यशोगान को करें ।
बाबा तुलसी ने अपने मन को समझाते हुये कहा है, कि
सुख भवन संसय समन दवन विषाद रघुपति गुन गना ।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ।। (श्रीरामचरितमानस/सु/60)
श्रीरघुनाथ जी के गुणसमूह सुख के धाम, सन्देह का नाश करनेवाले और विषाद का दमन करनेवाले हैं । ऐ मूर्ख मन! तू संसार की सारी आशाओं-भरोसों का त्यागकर अनवरत रूप से इन्हें ही गा और सुन ।
वन प्रवेश के समय श्रीभगवान ने श्रीवाल्मीकि मुनि से यह पूछा है कि,
अस जियँ जानि कहिअ सोई ठाऊँ । सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ ।। (श्रीरामचरितमानस/अयो/126)
हे मुनिवर! अपने हृदय में यह विचार करके मुझे उस स्थान को बतावें जहाँ मैं सीता और अपने अनुज लक्ष्मण के साथ जाकर रह सकूँ ।
श्रीवाल्मीकि मुनि ने इसी बात पर प्रकाश ड़ालते हुये कई स्थानों को निर्देशित करते हुये कहा है कि,-
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं । राम बसहु तिन्ह के मन माहीं ।। (श्रीरामचरितमानस/अयो/130)
जिसकी आपको छोड़कर कोई दूसरी गति न हो, हे श्रीराम! आप उनके मन में ही रहें ।
जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेह ।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ।। (श्रीरामचरितमानस/अयो/131)
जिन्हें कुछ भी इच्छा न हो और मात्र तुम्हारे प्रति सहज स्नेह हो, हे श्रीराम! आप उनके मन में ही रहें जो कि आपका निज घर ही है ।
बाबा तुलसी ने जो कहा है कि –
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ।। (श्रीरामचरितमानस/सु/60), उसका आशय यह है कि सभी भावों का त्याग करने पर ही श्रीभगवान की स्थिति प्राप्त होती है । ऐसा ही रहस्य श्रीभगवान ने गीता जी में भी उद्घाटित किया है –
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।। (श्रीमद्भगवद्गीता/18/65)
अर्थात् हे अर्जुन, तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको प्रणाम कर । ऐसा करने से तु मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है ।
पहले तो यह विचार सुनिश्चित करें कि बाबा तुलसी ने सारी आशाओं, व्यवस्थाओं आदि पर अपनी श्रद्धा और विश्वास को समर्पित न करने की ओर संकेत किया है । इस के फलस्वरूप ही श्रीभगवान की नित्य-निरंतन अनुभूति प्राप्त होगी । यहाँ त्याज्य विषय तो स्पष्ट हो चुका किंतु यह रहस्य अभी भी स्पष्ट नहीं हुआ कि श्रीभगवान के यशोगान के लिये संभालने योग्य क्या है –
जे गावहिं यह चरित सँभारे । तेइ येहि ताल चतुर रखवारे ।। (श्रीरामचरितमानस/बा/38)
अब संभालने के लिये भी बाबा तुलसी ने दूसरे प्रसंगों में निर्देशित कर रखा है –
बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ।। (श्रीरामचरितमानस/सु/1)
श्रीहनुमान जी बारं-बार रघुबीर श्रीराम को सँभालते (मन से स्मरण करते) हुये पर्वत पर से कूद पड़े । अर्थात् – यहां संभालने योग्य श्रीराम की स्मृति ही उद्घाटित है ।
आगे लंका काण्ड में युद्ध के समय भी जब श्रीहनुमान औऱ लंकापति रावण का द्वन्द्व युद्ध हो रहा था तब श्री हनुमान ने पुनः श्रीराम की स्मृति को सँभाला है –
बुधि बल निसिचर परै न पार्यो । तब मारुतसुत प्रभु संभार्यो ।। (श्रीरामचरितमानस/लं/95)
जब श्रीहनुमान जी ने देखा कि निशिचर रावण के ऊपर बुद्धि और बल से पार नहीं पाया जा रहा, तब उन्होंने अपने प्रभु श्रीराम की स्मृति को सँभाला (स्मरण करने लगे) ।
संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यौ ।
महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यौ ।। (श्रीरामचरितमानस/लं/95)
पुनः धीर रघुबीर श्रीराम को संभाल (मन से स्मरण कर) कर श्रीहनुमान ने रावण को ललकारते हुये मारा । वे दोनों बारं बार धरती पर गिरते और फिर उठकर लड़ने लगते हैं । द्वन्द्व युद्ध का यह दृश्य देखकर देवगण दोनों योद्धाओं की जय-जयकार (प्रशंसा) कर रहे हैं ।
इस दृश्य में भी श्रीहनुमान जी महाराज ने श्रीराम की अनवरत स्मृति को ही सँभाला है । इन सभी तथ्यों से यह स्पष्ट है कि बाबा तुलसी ने दो बातों पर विशेष रूप से ध्यान रखने को कहा है,
(1) श्रीभगवान को छोड़कर अन्य सभी आशाओं, मतों, विश्वासों का त्याग कर ही श्रीभगवान का यशोगान करना चाहिये ।
(2) श्रीभगवान की निरंतर स्मृति को सँभालकर ही श्रीभगवान का यशोगान करना चाहिये ।
अब यह भी ध्यान देने योग्य है कि, श्रीभगवान की स्मृति की विधि कैसी हो –
मन! माधवको नेकु निहारहि ।
सुनु सठ, सदा रंक के धन ज्यों, छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहिं ।। (विनयपत्रिका)
हे मन! माधव की ओर तनिक तो देख । अरे दुष्ट! सुन, जैसे कंगाल क्षणक्षण में अपना धन सँभालता है, वैसे ही तू अपने स्वामी श्रीरामजी का स्मरण किया कर ।।
अपने भावों को स्पष्ट करते हुये श्रीभगवान के स्मरण के बारे में बाबा तुलसी ने अपने लेखनी को विश्राम देने से पहले श्रीरामचरितमानस में कहा है –
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ।। (श्रीरामचरितमानस/उ/130)
जिस प्रकार से कामी पुरुष को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी पुरुष को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी! हे रामजी! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये ।।
अपने विचार से हमें जरूर लाभान्वित करेंगे जिससे कि दास भविष्य में भी अन्य विषयों पर अपने लेख लिखकर जनसामान्य की सेवा कर सके ।
स्वामी श्रीवेंकटेशाचार्यजी,
श्रीचरण आश्रम, वृंदावन
+918958449929, +918579051030
आप जैसे परम भगवत भक्त ही परम रसीली भगवान की महान कथा का गहराई से चिंतन कर हम भूले भटके हुए लोगो को परोस कर सही मार्ग दर्शन कर हम लोगो पर बड़ी कृपा किए है। जय श्रीराम।
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