सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

शुभाशुभ कर्म की चिंता


शुभाशुभ कर्म की चिंता

इस दौरान मुझे गौर, रौतहट, नेपाल में कुछ दिन प्रवास करने का अवसर प्राप्त हुआ ।  वहाँ हमारे सम्बन्धि और क्षेत्र के सुप्रसिद्ध नेत्र चिकित्सक डॉ हरिश्चन्द्र झा जी से मेरी मुलाकात हुई ।  अपने व्यस्त कार्यक्रम होने पर भी उन्होंने मेरे साथ कुछ पल बिताया । बहुत ही विनम्रता और स्पष्टता के साथ उनका एक प्रश्न मेरे सामने आया कि – क्या शुभ कर्म का परिणाम शुभ ही होता है ? चुकि कई बार समाज में ऐसे लोग भी देखने को मिलते हैं, जो जीवन पर्यन्त अन्य लोगों के प्रति सहृदय रहते हुए सदैव ही शुभ कर्मों से ही जुड़े रहते हैं । फिर भी उन्हें बहुत कष्ट उठाना पड़ता है । ऐसा क्यों ? क्या इससे हतोत्साहित होकर युवाओं को शुभ कर्मों के आचरण से हमें दूर हो जाना चाहिये ?
यह प्रश्न दिखने में बहुत सरल किन्तु समझने में बहुत ही सारगर्भित और गम्भीर है । भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने कर्म के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा है -
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ।। (श्रीमद्भगवद्गीता – 3/1)
यहाँ आशय यह है कि अर्जुन ने पूछा है कि - हे जनार्दन ! कर्म से श्रेष्ठ यदि बुद्धियोग ही है, तब मुझे घोर परिणाम से युक्त कर्म को करने के लिये नियुक्त क्यों कर रहे हैं । यहाँ अर्जुन का विचार स्पष्ट है कि आपने यदि यह स्पष्ट कर ही दिया है कि इन्द्रिय और उनके भोग समबन्धित कर्म घोर परिणाम को प्रस्तुत करने वाले ही होते हैं । अतः कर्म से भयभीत होना सहज और   तर्कसंगत है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने भी कर्मों के बारे में उपदेश करते हुये कहा है कि –
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। (श्रीमद्भगवद्गीता – 4/16)
मुमुक्षु पुरुषों के लिये आचरण करने योग्य कर्म के क्या स्वरूप है और अकर्म के क्या स्वरूप है ?  इस अंतर को समझने में बड़े बड़े विद्वान मोहित और भ्रमित हो जाते हैं । इसलिय भगवान कर्म की व्याख्या करते हैं जिसको जानकर मुमुक्षु अशुभ गति से बच सके । आगे कहते हैं, कि-
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः । अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।। (श्रीमद्भगवद्गीता – 4/17)
भगवान श्रीकृष्ण ने समस्त कर्मों को तीन श्रेणी में बांटा है – कर्म (मोक्ष की प्राप्ति में सहायक शास्त्र विहित कर्म), विकर्म (नित्य, नैमित्तिक और काम्यरूप से तथा उनके साधन द्रव्योपार्जनादि रूप से विविध भावों को प्राप्त कर्म) और अकर्म (ज्ञान) । किन्तु इतना कहकर उन्होंने भी टिप्पणी कर दी - कर्म की गति बड़ी गूढ़ है । आगे श्रीभगवान कहते हैं कि -
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ।। (श्रीमद्भगवद्गीता – 4/18)
मोक्ष के लिये साधनभूत कर्मों में जो पुरुष अकर्म (आत्मज्ञान) देखता है और अकर्म (आत्मज्ञान) में जो पुरुष मोक्ष के लिये साधनभूत कर्मों को देखता है, वही मनुष्यों में बुद्धिमान कहा जाता है और वही युक्त (ब्रह्मानन्द को प्राप्त) और सभी कर्मों को करनेवाला कहा जाता है 
प्रश्नकर्ता अर्जुन और उपदेशक श्रीकृष्ण दोनों ही समय-समय पर कर्म की गति को रहस्यास्पद स्वीकार कर रहे हैं । फिर हम सामान्य मनुष्य कर्मों पर विचार करते हुये भ्रमित हो भी जायें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । किन्तु वर्तमान परिवेश में यह प्रश्न हमारी युवा पीढ़ी को अनुशासित और सुसभ्य करने के लिये अत्यन्त ही आवश्यक है । आइये हम विचार करें कि शंका का समाधान क्या हो -
(1) वर्तमान सामाजिक परिवेश में शुभाशुभ फल को समझने में भी भेद उपस्थित हो चुका है । स्वस्थ शरीर, व्यापारिक लाभ और समयानुसार आधुनिक भोग-विलास की प्रचुरता ही शुभ कर्मों के परिणाम रूप में हमें चाहिये होते हैं । किन्तु शान्ति मंत्र आदि समस्त मंगलाचरण की विधियों के रहस्य तो यह उद्घोषित करते हैं कि हमारे समस्त शुभ कर्मों के फलस्वरूप समस्तलोक, समस्त जड़-चेतन पदार्थ, समस्त इन्द्रादि देवगण आदि का भी मंगल हो ।
अर्थात् – हम अपने शुभ कर्मों के परिणाम स्वरूप अपनी सोंच को संकुचित करके व्यक्तिगत जीवन के सुख-दुख से जोड़ कर हतोत्साहित होते रहते हैं । किन्तु सार्वभौमिक वैदिक चिन्तन के आधार पर यदि हम अपने शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप समस्त चराचर जगत के कल्याण और अवस्था का अनुसंधान करेंगे तब हमें सभी जगह व्याप्त संतुलन और सुख को देखकर सदैव ही धर्म और धार्मिक गतिविधियों के प्रति श्रद्धा की अनुभूत होती रहेगी ।
(2) कर्मों का विभाजन तीन स्तर से है – आगामी, संचित और प्रारब्ध । अनेकानेक जन्मों से उपस्थित कर्मों के परिणाम जो अभी तक अभुक्त रहे हैं, वे संचित कर्म के रूप में उपस्थित होते हैं । वर्तमान समय में किये जा रहे कर्म, आगामी कर्म के रूप में उपस्थित होते हैं । श्राप, वरदान या मृत्यु के समय                उत्पन्न प्रबल इच्छा ही प्रारब्ध के रूप में उपस्थित होते हैं । संचित और आगामी कर्म का नाश शास्त्रों में वर्णित कर्मकाण्ड आदि विधियों से सम्भव है किन्तु प्रारब्ध को तो भोगना ही पड़ता है ।
(3) इस शरीर को ही देहाभिमान के भाव से जीवन का आधार मानकर हम अपने जीवन काल को इस वर्तमान मनुष्य शरीर के जन्म से लेकर मरण तक मान कर ही अपने शुभाशुभ कर्मों के परिणाम के उपस्थित होने की समयावधि भी मान लेते हैं । किन्तु सत्य तो यह है कि, जीवात्मा के कर्मों का भोगकाल तब तक है जब तक कि वह अनेकानेक योनियों से भटकता हुआ परमात्मा की प्राप्ति न कर ले । उन समस्त योनियों में वह पूर्व के जन्मों के किये शुभाशुभ कर्मों को भोगता ही रहता है । अतः वर्तमान समय में यदि हम अपने शुभ कर्मों को करने के बाद भी पीड़ा की अनुभूति कर रहे हैं तो इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व के जन्मों के किये अशुभ कर्म प्रबल रूप से अपने परिणाम को प्रभावी कर रहे हैं । किन्तु यह भी विचारणीय है कि वर्तमान समय में किये जा रहे शुभ कर्म व्यर्थ न होकर भविष्य के समय या अगले जन्म में अपने शुभ परिणाम को अवश्यमेव प्रस्तुत करेंगे ।
अर्थात् – हमारे प्रेमियों को सदैव अनुसंधान करना चाहिये कि -चट मंगनी पट व्याह- हमेशा नहीं होते । जीवन पथ पर भगवान के मूल संदेश कि जीव को समस्त कर्मों का समर्पण मेरी ओर करके ही जीवन व्यतीत करना चाहिये जिससे कि वह मुझे प्राप्त कर लेगा और परमानन्द की अनुभूति करेगा ।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । (श्रीमद्भगवद्गीता – 18/65)

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् - अन्वय और व्याख्या । श्रीमद्भागवत मंगलाचरण ।

  जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ते यत्सूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ।। (1/1/1) श्रीमद्भागवत महापुराण का मंगलाचरण का प्रथम श्लोक अद्भुत रहस्यों से युक्त है । आइए इस पर विचार करें - य ब्रह्म - वह जो ब्रह्म है, जन्माद्यस्य यतः - जिससे इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं, और जो इतरतः - अन्य स्थान (नित्य विभूति वैकुण्ठ) से, अन्वयात् – पीछे से (गुप्त रूप से या परोक्ष रूप से अन्तर्यामी भाव से), अर्थेषु – सासांरिक वस्तुओं में (उस परम अर्थ के लिए उपस्थित वस्तु को अर्थ कहते हैं), अभिज्ञः – जानने वाला है (साक्षी जीवात्मा के रूप में उपस्थित या परम कर्ता है), च – और, स्वराट् - परम स्वतंत्र है, इ – अचरज की बात यह है कि, तेन – उसके द्वारा, हृदा – संकल्प से ही, आदिकवये – आदिकवि ब्रह्माजी के लिए वेदज्ञान दिया गया है, यत्सूरयः –जिसके विषय में (उस परम ज्ञान या भगवद्लीला के बारे में) बड़े-बड़े विद्वान भी, मुह्यन्ति – मोहित हो जाते हैं । यथा –जैसे, त...

कलिसंतरण उपनिषद - हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।

यद्दिव्यनाम स्मरतां संसारो गोष्पदायते । सा नव्यभक्तिर्भवति तद्रामपदमाश्रये ।।1।। जिसके स्मरण से यह संसार गोपद के समान अवस्था को प्राप्त हो जाता है, वह ही नव्य (सदा नूतन रहने वाली) भक्ति है, जो भगवान श्रीराम के पद में आश्रय प्रदान करती है ।।1।। The ever-young Bhakti (devotion) by the grace of which this world becomes like the hoof of a cow, provides refuge in the feet of Lord Shri Ram. ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।। ॐ हम दोनों साथ में उनके (परमात्मा के) द्वारा रक्षित हों । दोनों साथ में ही आनंद की प्राप्ति (भोग) करें । दोनों साथ में ही अपने वीर्य (सामर्थ्य) का वर्धन करें । (शास्त्रों का) का अध्ययन करके तेजस्वी बनें । आपस में द्वेष का भाव न रखें । Oum. Let both of us be protected by Him together. Both of us attain the eternal bliss (ojectives) together. Both of us increase the spunk together. Both of us become enlightened after studying the different Shastras (the noble verses). Both of us...

डगर डगर आज गोकुला नगरिया, बधैया बाजे ।