सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मार्तण्ड (सूर्य) औऱ उनके संतान की उत्पत्ति


हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहीतं मुखं । 

तत्त्वं पूषण अपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये ।


पुराणों में सूर्य को लेकर अत्यन्त ही सुन्दर कथा आती है । आइये सूर्य और उनकी संतति के जन्म की संक्षिप्त कथा को जानने की कोशिश करें । मरीचि मुनि ब्रह्माजी के पुत्र हैं । उन मरीचि मुनि के पुत्र का नाम कश्यप मुनि था । ये प्रजापतियों में सबसे अधिक श्रीसम्पन्न थे क्योंकि ये देवताओं के पिता थे । बारहों आदित्य उन्हीं के पुत्र थे । द्वादश आदित्य में मार्तण्ड महान प्रतापशाली थे । सप्तमी तिथि को भगवान सूर्य का आविर्भाव हुआ था । वे अण्ड के साथ उत्पन्न हुये और अण्ड में रहते हुये ही उन्होंने वृद्धि प्राप्त की । बहुत दिनों तक अण्ड में रहने के कारण ये मार्तण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुये । जब ये अण्ड में स्थित ते तभी दक्ष प्रजापति ने अपनी रूपवती कन्या रूपा को भार्या के रूप में इन्हें अर्पित किया । अन्य जगह पर इन्हीं रूपा का नाम संज्ञा बताया गया है और इनको विश्वकर्मा की पुत्री बताया गया । कल्पान्तर में ऐसा सम्भव हो सकता है । दक्ष की आज्ञा से ही विश्वकर्मा ने इन मार्तण्ड केशरीर का संस्कार किया, जिससे ये अतिशय तेजस्वी हो गये । अण्ड में स्थित रहते ही मार्तण्ड ने यम और यमी नामक दो संतति को उत्पन्न किया । मार्तण्ड के असह्य तेज के कारण संज्ञा उनकी ओर देख ही नहीं सकती थी । अतः वे उस स्थान का त्याग कर उत्तरकुरु में चली गयी और अपनी स्थान पर अपनी छाया से एक स्त्री को उतपन्न कर उन स्व-स्वरूप छाया को वहीं स्थापित कर दिया और उनसे यह कहा – तुम भगवान सूर्य के समीप मेरी जगह रहना, परंतु यह भेद खुलने न पाये । किसी को इस बात का संज्ञान न रहा । संज्ञा उत्तरकुरु प्रदेश में घोड़ी का रूप धारण करके इधर-उधर घूमती हुई तपस्या करने लगी । कालान्तर में मार्तण्ड से छाया ने शनि और तपती नाम की दो संतति को जन्म दिया । छाया अपनी संतानो पर यमुना और यम से अधिक स्नेह करती थी । एक दिन यमुना और तपती में विवाद हो गया । पारस्परिक श्राप के कारण दोनों नदी हो गयीं । एक बार छाया ने यमुना के भाई यम को दण्डित किया । इस पर यम ने क्रुद्ध  होकर छाया को मारने के लिये पैर उठाया । छाया ने क्रुद्ध होकर शाप दे दिया – मूर्ख! तुमने मेरे ऊपर पैर उठाया है, इसीलिये तुम्हारा प्राणियों का प्राणहिंसक रूपी यह विभत्स कर्म तबतक रहेगा, जब तक सूर्य और चन्द्र रहेंगे । यदि तुम मेरे शाप से कलंकित अपने पैरों को पृथ्वी पर रखोगे तो कृमिगण उसे खा जायेंगे । अन्य जगह ऐसी कथा आती है कि यम को यह श्रापित किया कि - हे यम! तुम शीघ्र ही प्रेतों के राजा हो जाओगे । तभी भगवान सूर्य वहीं आ पहुँचे । यम ने इस बात की शिकायत अपने पिता से कर दी कि – हे पिता! यह हमारी माता नहीं हो सकती । यह देवी मेरी माता के स्वरूप की है, किन्तु मेरी माता नहीं क्योंकि इसका हमारे प्रति वैमनस्यता का भाव परिलक्षित होता रहता है । यह हम बच्चों में भेद करती रहती है । सारे तथ्यों को समझने पर मार्तण्ड अत्यन्त ही दुखी हुये और उन्होंने यम से कहा  - हे पुत्र! तुम चिन्तित न हो । कृमिगण मांस और रुधिर लेकर भूलोक को चले जायेंगे, इससे तुम्हारा पाँव गलेगा नहीं, अच्छा हो जायेगा । तुम मनुष्यों के धर्म और पाप का निर्णय करोगे और ब्रह्माजी की आज्ञा से तुम लोकपाल पद को प्राप्त करोगे । तुम्हारी बहन यमुना का जल गङ्गाजल के समान पवित्र  हो जायेगा और तपती का जल नर्मदाजदल के तुल्य पवित्र माना जायेगा । आज से यह छाया सबके देहों में अवस्थित होगी । शनि को भी श्रापित कर दिया कि – हे पुत्र! माता के दोष से ही तुम्हारी दृष्टि में भी क्रूरता उपस्थित रहेगी ।
ऐसा कहकर सूर्य दक्ष के पास चले गये और उनसे सारा वृत्तान्त कह सुनाया । तब दक्ष ने उनसे कहा – आपके प्रचण्ड तेज से ही व्याकुल होकर आपकी भार्या संज्ञा उत्तरकुरु देश में चली गयी है । अब आप विश्वकर्मा से अपना रूप प्रशस्त करवा लें । यह कहकर विश्वकर्मा को बुलाकर उनसे कहा – विश्वकर्मा आप इनका सुन्दर रूप प्रकाशित कर दे। तब सूर्य की सम्मति पाकर विश्वकर्मा ने अपने तक्षण-कर्म से सूर्य को खरादना प्रारम्भ किया । अङ्गों के तराशने के कारण सूर्य को अतिशय पीड़ा हो रही थी और वे बार-बार मूर्छित हो रहे थे । इसीलिये विश्वकर्मा ने सब अङ्ग तो ठीक कर लिये, पर जब पैरों की अङ्गुलियों को छोड़ दिया तब सूर्य भगवान ने कहा – हे विश्वकर्मा! जी आपने तो अपना कार्य पूर्ण कर लिया, परंतु हम पीड़ा से बहुत व्याकुल हो रहे हैं । आप इसका कोई उपाय बताइये । विश्वकर्मा ने कहा- भगवन्! आप रक्तचन्दन और करवीर (कनेर) के फूलों का लेप पूरे शरीर में करें । इससे तत्काल ही यह वेदना शांत हो जायेगी । भगवान सूर्य ने अपने शरीर में इनका लेप किया, जिससे उनकी सारी वेदना मिट गयी । उसी दिन से रक्तचन्दन और करवीर (कनेर) के फूल भगवान सूर्य को अत्यन्त ही प्रिय हो गये और उनकी पूजा में प्रयुक्त होने लगे । सूर्यभगवान के शरीर के खरादने से जो तेज निकला, उस तेज से दैत्यों के विनाश करने वाले वज्र के समान अस्त्रों का निर्माण हुआ । विश्वकर्मा ने उससे विष्णुभगवान का चक्र, शंकर का त्रिशूल, कुबेर का विमान, कार्तिकेय की शक्ति बनायी तथा अन्य देवताओं के भी अस्त्रों को उससे पुष्ट किया । सुन्दर स्वरूप प्राप्त करके भगवान सूर्य संज्ञा की खोज में चल पड़े । उन्होंने संज्ञा को घोड़ी रूप में देखा तब स्वयं घोड़े के रूप में हो गये । तब पर पुरुष की आशंका से संज्ञा ने अपने दोनों नासापुटों से सूर्य के तेज को एक साथ बाहर फेंक दिया जिससे दो संतानों की उत्पत्ति हुई जिनका नाम दो अश्विनी कुमार हुआ । तेज के अन्तिम अंश रेतःस्राव के अनन्तर ही रेवन्त की उत्पत्ति हुई । अतः तपती, शनि और सावर्णि – ये तीन संतानें छाया से और यमुना तथा यम संज्ञा से उत्पन्न हुये । सूर्य को अपनी भार्या उत्तरकुरु में सप्तमी तिथि के दिन प्राप्त हुई, उन्हें दिव्य रूप सप्तमी तिथि को ही मिला तथा संताने भी इसी तिथि को प्राप्त हुई, अतः सप्तमी तिथि भगवान सूर्य को अतिशय प्रिय है ।
इसी प्रसंग में यम और यमी (यमुना) से सम्बन्धित यमद्वितीया के प्रसंग को भी जानना अत्यन्त आवश्यक है । कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को यमुना ने अपने घर अपने भाई यम को भोजन कराया और यमलोक में बड़ा उत्सव हुआ, इसीलिये इस तिथि का नाम यमद्वितीया है । अतः इस दिन भाई को अपने घर पर भोजन न कर बहिन के घर जाकर प्रेमपूर्वक उसके हाथ का बना हुआ भोजन करना चाहिये । उससे बल और पुष्टि की वृद्धि होती है । इसके बदले बहिन को स्वर्णालंकार, वस्त्र तथा द्रव्य आदि से संतुष्ट करना चाहिये । यदि अपनी सगी बहिन न हो तो पिता के भाई की कन्या, मामा की पुत्री, मौसी अथवा बुआ की बेटी- ये भी बहिन के समान हैं, इनके हाथ का बना भोजन करे ।  जो पुरुष यमद्वितीया को बहिन के हाथ का भोजन करता है, उसे धन, यज्ञ, आयुष्य, धर्म, अर्थ और अपरिमित सुख की प्राप्ति होती है ।

यह लेख वराहपुराण, भविष्यपुराण और विष्णुपुराण के आधार पर लिखी गई है । अतः इसमे उपस्थित जानकारियां और इतिहास प्रमाणित ही समझनी चाहिये ।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् - अन्वय और व्याख्या । श्रीमद्भागवत मंगलाचरण ।

  जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ते यत्सूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ।। (1/1/1) श्रीमद्भागवत महापुराण का मंगलाचरण का प्रथम श्लोक अद्भुत रहस्यों से युक्त है । आइए इस पर विचार करें - य ब्रह्म - वह जो ब्रह्म है, जन्माद्यस्य यतः - जिससे इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं, और जो इतरतः - अन्य स्थान (नित्य विभूति वैकुण्ठ) से, अन्वयात् – पीछे से (गुप्त रूप से या परोक्ष रूप से अन्तर्यामी भाव से), अर्थेषु – सासांरिक वस्तुओं में (उस परम अर्थ के लिए उपस्थित वस्तु को अर्थ कहते हैं), अभिज्ञः – जानने वाला है (साक्षी जीवात्मा के रूप में उपस्थित या परम कर्ता है), च – और, स्वराट् - परम स्वतंत्र है, इ – अचरज की बात यह है कि, तेन – उसके द्वारा, हृदा – संकल्प से ही, आदिकवये – आदिकवि ब्रह्माजी के लिए वेदज्ञान दिया गया है, यत्सूरयः –जिसके विषय में (उस परम ज्ञान या भगवद्लीला के बारे में) बड़े-बड़े विद्वान भी, मुह्यन्ति – मोहित हो जाते हैं । यथा –जैसे, त...

कलिसंतरण उपनिषद - हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।

यद्दिव्यनाम स्मरतां संसारो गोष्पदायते । सा नव्यभक्तिर्भवति तद्रामपदमाश्रये ।।1।। जिसके स्मरण से यह संसार गोपद के समान अवस्था को प्राप्त हो जाता है, वह ही नव्य (सदा नूतन रहने वाली) भक्ति है, जो भगवान श्रीराम के पद में आश्रय प्रदान करती है ।।1।। The ever-young Bhakti (devotion) by the grace of which this world becomes like the hoof of a cow, provides refuge in the feet of Lord Shri Ram. ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।। ॐ हम दोनों साथ में उनके (परमात्मा के) द्वारा रक्षित हों । दोनों साथ में ही आनंद की प्राप्ति (भोग) करें । दोनों साथ में ही अपने वीर्य (सामर्थ्य) का वर्धन करें । (शास्त्रों का) का अध्ययन करके तेजस्वी बनें । आपस में द्वेष का भाव न रखें । Oum. Let both of us be protected by Him together. Both of us attain the eternal bliss (ojectives) together. Both of us increase the spunk together. Both of us become enlightened after studying the different Shastras (the noble verses). Both of us...

डगर डगर आज गोकुला नगरिया, बधैया बाजे ।