आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाएं । परमात्मा आपके परिवार में सबको सुख-शांति-समृद्धि प्रदान करें ।
भविष्यपुराण में कई व्रत त्यौहारों पर विशेष रूप से चर्चा की गई है । महाराज युधिष्ठिर के प्रश्नों का उत्तर देते हुये भगवान श्रीकृष्ण ने कई पर्व और त्यौहारों के संदर्भ में इतिहास को बताया है । होली की प्रासंगिकता को भी हम उसी प्रसंग से जान सकेंगे ।
महाराज युधिष्ठिर ने
भगवान श्रीकृष्ण से पूछा – भगवान! फाल्गुन की पूर्णिमा को गाँव-गाँव तथा शहर-शहर में उत्सव
क्यों मनाया जाता है और गाँवों एवं नगरों में होली क्यों जलायी जाती है ? घर-घर जाकर बालक उस दिन
अनाप-शनाप क्यों शोर मचाते हैं ? अडाडा (अरर की ध्वनि) किसे कहते हैं, उसे शीतोष्णा क्यों कहा जाता
है तथा किस देवता का पूजन किया जाता है ? आप यह बताने की कृपा करें ।
भगवान श्रीकृष्ण ने
युधिष्ठिर से कहा – पार्थ सतयुग में रघु नामके एक शूरवीर, प्रियवादी, सर्वगुणसम्पन्न और दानवीर राजा राज
करते थे । वे सम्पूर्ण धरती को जीत कर सभी राजाओं को अपने अधीन करके पुत्र की
भांति प्रजा का लालन-पालन किया करते थे । उनके राज्य में कभी भी दुर्भिक्ष (अकाल)
नहीं हुआ और न ही किसी की अकाल मृत्यु हुई । अधर्म में किसी की भी रुचि नहीं थी । किन्तु
एक दिन नगरवासी राजद्वार पर अचानक इकट्ठे
होकर ‘बचाओ’, ‘बचाओ’ पुकारने लगे । राजा ने इस तरह भयभीत लोगों से भय का कारण पूछा । उन लोगों
ने कहा कि महाराज! ढ़ोंढ़ा नाम की एक राक्षसी प्रतिदिन हमारे बालकों को कष्ट
देती है और उस पर किसी मन्त्र-तन्त्र, ओषधि आदि का प्रभाव भी नहीं पड़ता । उसका
किसी भी प्रकार से निवारण नहीं हो पा रहा है । नगरवासियों का यह वचन सुनकर
आश्चर्यचकित राजा ने राजगुरु महर्षि वशिष्ठ मुनि से उस राक्षसी के विषय में पूछा ।
तब उन्होंने राजा से कहा – राजन्! माली नाम का एक दैत्य है । उसी की एक पुत्री है
ढ़ोंढ़ा । उसने बहुत समय तक उग्र तपस्या करके शिवजी को प्रसन्न किया । उन्होंने
उससे वरदान माँगने को कहा । इसपर ढ़ोंढ़ा ने यह वरदान माँगा कि ‘प्रभो! देवता, दैत्य, मनुष्य आदि
मुझे न मार सकें तथा अस्त्र-शस्त्र आदि से भी मेरा वध न हो, साथ ही दिन में,
रात्रि में, शीतकाल, उष्णकाल तथा वर्षाकाल में, भीतर अथवा बाहर कहीं भी मुझे किसी
से भय न हो ।‘ तब भगवान शंकर ने ‘तथास्तु’ कहकर यह भी कहा कि ‘तुम्हें उन्मत्त बालकों से भय होगा ।‘ इस प्रकार वर देकर भगवान
शिव अपने धाम को चले गये । वही ढ़ोंढ़ा नाम की काम-रूपिणी राक्षसी नित्य बालकों को और प्रजा को पीड़ा देती रहती है । ‘अडाडा’ मन्त्र का उच्चारण करने पर
वह ढ़ोंढ़ा शान्त हो जाती है । इसीलिये उसे ‘अडाडा’ भी कहते हैं । यही उस राक्षसी ढ़ोंढ़ा का
चरित्र है । अब मैं उससे पीछा छुड़ाने का उपाय बता रहा हूँ ।
राजन! आज फाल्गुन महीने के शुक्ल
पक्ष की पूनम तिथि को सभी लोगों को निडर होकर क्रीडा करनी चाहिये और नाचना, गाना
तथा हँसना चाहिये । बालक लकड़ियों के बने हुये तलवार लेकर वीर सैनिकों की तरह से
हर्षित होकर युद्ध के लिये उत्सुक हो दौड़ते हुए निकल पड़ें और आनन्द मनायें ।
सूखी लकड़ी, उपले, सूखी पत्तियाँ आदि अधिक से अधिक एकत्रित कर उस ढ़ेर में ‘रक्षोघ्न’ मन्त्रों से अग्नि लगाकर
उसमें हवन करने के बाद हँसकर ताली बजाना चाहिये । उस जलते हुये ढ़ेर की
तीन बार परिक्रमा कर बच्चे-बूढ़े सभी आनन्ददायक विनोदपूर्ण
वार्तालाप करें और प्रसन्न रहें । इस प्रकार रक्षामन्त्रों से, हवन करने से, कोलाहल
करने से तथा बालकों के द्वारा तलवार के प्रहार के भय से उस दुष्ट राक्षसी ढ़ोढ़ा
का निवारण हो जाता है ।
वशिष्ठ जी का यह वचन
सुनकर राजा रघु ने सम्पूर्ण राज्य में लोगों से इसी प्रकार उत्सव करने को कहा और
स्वयं भी उसमें पूर्ण रूप से सहयोग किया, जिससे वह राक्षसी विनष्ट हो गयी । उसी
दिन से इस लोक में ढ़ोंढ़ा का उत्सव प्रसिद्ध हुआ और अडाडा की परम्परा चली ।
ब्राह्मणों के द्वारा सभी दुष्टों और सभी रोगों को शान्त करनेवाला ‘वसोर्धारा’ -होम इसी दिन किया जाता
है, इसीलिये इसको ‘होलिका’ भी कहा जाता है । सब
तिथियों का सार एवं परम आनन्द देनेवाली यह फाल्गुन महिना की पूर्णिमा तिथि है । इस
दिन रात्रि को बालकों की विशेषरूप से रक्षा करनी चाहिये । गोबर से लिपे-पुते घर के
आँगन में बहुत से खड्ग (लकड़ी के बने)
लिये हुये बालकों को बुलाने चाहिये और घर में रक्षित बालकों को काष्ठनिर्मित खड्ग
से स्पर्श कराना चाहिये । हँसना, गाना, बजाना, नाचना आदि करके उत्सव के बाद गुड़
और बढिया पकवान देकर बालकों को विसर्जित करना चाहिये । इस विधि से ढ़ोंढ़ा का दोष
अवश्य ही शान्त हो जाता है ।
महाराज युधिष्ठिर ने
पूछा – भगवन्! दूसरे दिन चैत्र मास से वसन्त ऋतु का आगमन होता है, उस दिन क्या करना चाहिये
।
भगवान श्रीकृष्ण ने
उनसे कहा – महाराज! होली के दूसरे दिन प्रतिपदा में प्रातःकाल उठकर आवश्यक
नित्यक्रिया से निवृत्त हो पितरों और देवताओं के लिये तर्पण-पूजन करना चाहिये और
सभी दोषों की शान्ति के लिये होलिका की विभूति की वन्दना कर उसे अपने शरीर में
लगाना चाहिये । घर के आँगन को गोबर से लीपकर उसमें एक चौकोर मण्डल बनाये और उसे
रंगीन अक्षतों से अलंकृत करे । उस पर एक पीठ रखे । पीठ पर सुवर्णसहित पल्लवों से
समन्वित कलश स्थापित करे । उसी पीठ पर श्वेत चन्दन भी स्थापित करना चाहिये ।
सौभाग्यवती स्त्री को सुन्दर वस्त्र, आभूषण पहनकर दही, दूध, अक्षत, गन्ध, पुष्प,
वसोर्धारा आदि से उस श्रीखण्डकी पूजा करनी चाहिये । फिर आम के मंजरी सहित उस चन्दन
का प्राशन करना चाहिये । इससे आयुकी वृद्धि, आरोग्य की प्राप्ति तथा समस्त कामनाएं
सफल होती हैं । भोजन के समय पहले दिन का पकवान थोड़ा सा खाकर इच्छानुसार भोजन करना
चाहिये । इस विधि से जो फाल्गुनोत्सव मनाता है, उसके सभी मनोरथ अनायास ही सिद्ध हो
जाते हैं । सभी प्रकार के आधि-व्याधि का विनाश हो जाता है और वह पुत्र-पौत्र,
धन-धान्य से पूर्ण हो जाता है । यह परम पवित्र, विजयदायिनी पूर्णिमा सब प्रकार के विघ्नों
को दूर करनेवाली है तथा सभी तिथियों में उत्तम है ।
अपने विचार से हमें जरूर लाभान्वित करेंगे जिससे कि दास भविष्य में भी अन्य विषयों पर अपने लेख लिखकर जनसामान्य की सेवा कर सके ।
स्वामी श्रीवेंकटेशाचार्यजी,
श्रीचरण आश्रम, वृंदावन
+918958449929, +918579051030
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