वासन्ती नवरात्र पर विशेष
प्रातःकाल की अरुणिमा बेला
की शुरुआत में ही कोयल ने अपनी कूहुक से बंद पलकों को यह आहट दे दी, कि अब आलस का
परित्याग करके अपनी दैनंदिनी को कुशलतापूर्वक करने का नूतन अवसर प्राप्त हुआ है ।
साथ ही आम के पल्लवप्रदेश में उपस्थित मंझरी की खुश्बु से पूरा वातावरण ही
आनंदप्रद और सुकून होकर सदैव ही परिणाम से बेखौफ होकर अपने कर्तव्य की मस्ती में
झूमते रहने का संदेश दे रहा है । भौरों ने भी अपनी खुशी को प्रदर्शित करते हुये
रंग-बिरंगे खिल रहे फूलों पर गुञ्जन कर परागों का आस्वादन करना प्रारम्भ कर दिया है
। जाड़े की विषमता से अलसाया मन अब उमंग, स्फूर्ति और उत्साह के साथ नये आयाम की
ओर बढ़ने को गतिशील है । क्या अब भी नहीं समझे यह मौसम बसंत का है और महिना मधुमास
है ? जी हाँ । ऐसे ही सुन्दर आहटों के साथ
प्रवेश होता है नये संवत्सर का । जब हर पुष्प मधु के निर्माण के लिये आवश्यक तत्व
पराग के साथ प्रचुर मात्रा में उपस्थित रहते हैं तभी तो ऐसा दृश्य उपस्थित होता है
। आइये इन नवीन पुष्पों के साथ ही हम अपने नये संवत्सर का स्वागत करें ।
इस
संसार में ज्ञान दो प्रकार के हैं । इस पर विचार करता हुआ ईशावास्योपनिषद के 11 वें
श्रुति में यह उद्धृत है, कि
विद्यां
च अविद्यां च यस्तद्वेदोभयं स ह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते
।।
अर्थात्
– विद्या (ज्ञान) के दो भेद हैं, विद्या और अविद्या । जीवात्मा अविद्या (कर्म) से
मृत्यु (प्रकृति) की अनुभूति करता है और विद्या (ज्ञान) के द्वारा अमृत (परमात्मा)
की प्राप्ति करता है ।
इसीलिये
हमारी भारतीय परम्परा हर विशेष घटनाक्रम में
आध्यात्मिक अवसर को तलाशती है । तदनुसार ही जब नये ऊर्जा के साथ सम्पूर्ण वातावरण
ही उपस्थित हो और समय हो नये संवत्सर के आगमन का, तब भारत का हर एक सनातन
धर्मावलम्बी अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिये विशेष प्रयास अवश्य करते हैं । हमारी
स्थिति तो स्थूल प्रतीत होती है किन्तु उद्देश्य सूक्ष्म है । अतः स्थूल विधियों
के द्वारा सूक्ष्म कार्यों को करने की विधि ही अनुष्ठान कहलाती है । इसीलिये
मधुमास (चैत्र महीना) में नवरात्र (वासन्त नवरात्र) की विशेष समयावधि में हर
भारतीय किसी न किसी विशेष प्रक्रिया के माध्यम से अपनी आत्मशुद्धि की विधि का
अनुकरण करता है । शास्त्रों में भी इसके कई उल्लेख मिलते हैं कि यदि हम चैत्र मास
का सेवन करें तो हमें विशेष लाभ प्राप्त होता है ।
वामन पुराण में ऐसा उल्लेख
आता है, कि
चैत्रे विचित्राणि
वस्त्राणि शयनान्यासनानि च ।
विष्णोः प्रीत्यर्थमेतानि
देयानि ब्राह्मणेष्वथ ।। (94/25)
अर्थात् - चैत्र मास में
भगवान विष्णु की प्रीति के लिये ब्राह्मणों को भांति-भांति के वस्त्र, शय्या एवं
आसनों का दान करना चाहिये ।
प्रसंगानुसार गरुड पुराण
में भी ऐसा उपदेश मिलता है कि, चैत्रमास में पुनर्वसु नक्षत्र से युक्त
शुक्लाष्टमी को अशोकाष्टमी व्रत कहा जाता है । इस दिन जो अशोकमञ्जरी की आठ कलियों
का पान करते हैं, वे शोक को नहीं प्राप्त होते हैं । अशोककलिकाओं को प्राप्त करते
समय निम्न मंत्र का पाठ करना चाहिये –
त्वामशोक हराभीष्ट
मधुमाससमुद्भव ।
पिबामि शोकसन्तप्तो मामशोकं
सदा कुरु ।। (गरुडपुराण/133/2)
हे हर के प्रिय! मधुमास (चैत्र महिना) में
प्रकट होने वाले! मैं आपका सेवन कर रहा हूँ ।
हे अशोक! आप मुझे सदा ही शोक से रहित करें ।
मधु मास के माहात्म्य के
सम्बन्ध में मत्स्यपुराण में ऐसा ही प्रमाण उपस्थित है कि,
वर्जयित्वा मधौ यस्तु
दधिक्षीरघृतैर्युतम् । दद्याद्वस्त्राणि सूक्ष्माणि सर्ववर्णयुतानि च ।।
संपूज्य विप्रमिथुनं गौरी
मे प्रियतामिती । एतद् गौरीव्रतं नाम भवानी लोकदायकमिति ।।
अर्थात् – चैत्र (मधु) मास
में दही, दूध एवं घी का त्याग करके जो मनुष्य ब्राह्मण दम्पति (ब्राह्मण-ब्राह्मणी)
का पूजन कर सारे प्रकार के वस्त्रों को प्रदान करता है, उससे गौरी प्रसन्न होती है
। इसे शास्त्रों में गौरीव्रत कहते हैं जो समस्त अभीष्टों की पूर्ति करनेवाली है ।
वासंती नवरात्र से सम्बंधित
प्रसंगों में भविष्योत्तर पुराण में उपदिष्ट है, कि
चैत्रे त्रिरात्रं नक्ताशी
नद्यां स्नात्वा ददाति यः । अजाः पञ्च पयस्विन्यो दरिद्राय कुटुम्बिने ।
न जायते पुनरसौ जीवलोके
कदाचन इति ।
अर्थात् – चैत्र मास में जो
मनुष्य तीन दिनों तक नक्त व्रत (एकसंझा, मात्र रात्रि में एक बार खाना) का आचरण
करता हुआ नदी में स्नान कर पाँच दूध देने वाली बकरियों का दान गरीब परिवार को करता
है, वह जीवन के आवागमन से मुक्त हो जाता है ।
यह नवरात्र राजा
विक्रमादित्य, महाराज युधिष्ठिर और भगवान श्रीरामचन्द्र के राज्याभिषेक से
सम्बन्धित होने से और भी विशेष प्रासंगिक हो जाता है । यह उत्सव पूर्व के हमारे
धर्मसम्राट राजाओं के आदर्श को पुनर्विचार करने का अवसर भी प्रदान भी करती है ।
हमारी वैदिक संस्कृति की रक्षा करने वाले राजाओं ने भलीभांति रूप से अपनी प्रजा की
रक्षा की और उनके जीवन में शांति, सद्भाव, प्रेम और सुरक्षा प्रदान करने के लिये
अनुपम त्याग किया । यह नवरात्र का समय उन समस्त त्याग की गाथाओं को स्मरण करा हमें
पुनः नई ऊर्जा के साथ धर्म, समाज और राष्ट्र की सेवा के लिये उत्साहित करती है ।
इस कलिकाल में जहाँ हर तरफ
हम सभी भौतिकवादी विचारधाराओं से प्रभावित होकर अपने जीवन को मशीनीकृत करते चले जा
रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ मनीषियों के द्वारा अनुसंधान की हुई कई विधियाँ हमें
आन्तरिक और बाह्य जगत के सुख को प्रदान करने के लिये पर्याप्त है और हमारी
सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सुरक्षित भी है । हमें अपनी सनातन धर्म की परम्पराओं
में पूर्ण श्रद्धा रखते हुये अपने इन व्रत उपवास को करने का प्रयास जरूर ही करना
चाहिये । एक तरफ बड़े बड़े कार्यालय खोलकर भोजन करने की निश्चित नियमावली (Dieting) और साथ ही साथ
व्यक्तित्व निर्माण (Personality
Development) के कई प्रकल्पों को आधुनिक
रूप से प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है, दूसरी तरफ हमारी सांस्कृतिक विरासत
में प्राप्त हमारे नियमानुशासन को दकिया-नुकूसी बताकर कुप्रचारित करने की कुचेष्टा
भी चल रही है । युवाओं को चाहिये कि आधुनिकता के साथ इन पूर्व अनुसंधानित विधियों
पर विश्वास करके अपने जीवन को सुख,
समृद्धि और शांति युक्त करने की चेष्टा जरूर करें ।
अपने विचार से हमें जरूर लाभान्वित करेंगे जिससे कि दास भविष्य में भी अन्य विषयों पर अपने लेख लिखकर जनसामान्य की सेवा कर सके ।
स्वामी श्रीवेंकटेशाचार्यजी,
श्रीचरण आश्रम, वृंदावन
+918958449929, +918579051030
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