ब्रह्मसूत्र
में श्रीभगवान की परम सत्ता को उद्घाटित करने के उद्देश्य से उन्हें ही इस
सम्पूर्ण सृष्टि के रचनाकार रूप में प्रमाणित करने के उद्देश्य से एक श्रुति उपस्थित
है जो इस बात का खण्डन करती है कि अशब्द (प्रकृति) कभी भी इस सृष्टि का रचनाकार
नहीं हो सकता ।
ईक्षतेर्नाशब्दम्
। 1/1/5
अर्थात्
– इस श्रुति में यह स्पष्ट किया जा रहा है कि इस चराचर संसार का रचयिता कौन है ? इसमें स्पष्ट रूप से कहा जा रहा
है कि – विचार या संकल्प करने पर (ईक्षतेः) यह स्पष्ट हो रहा है कि इस संसार का
मूल कारक प्रकृति (अशब्द, जिसका वर्णन वेदों न नहीं किया है) नहीं (न) है ।
इसी
रहस्य से सम्बन्धित छान्दोग्योपनिषद में 6/2/1 से 6/2/3 में श्रुति उद्धृत है, कि
सदेव
सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । .... तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत
तत्तेज ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तदपोऽसृजत ।...
अर्थात्
- वह सौम्य (सुन्दर) ही सत्य है, जो पूर्व में एक अद्वितीय भाव से प्रकट था किन्तु
उन सौम्य ने ही इच्छा (संकल्प) करके प्रजा की सृष्टि कर डाली । उन्होंने ही तेज की
रचना कर दी । उस तेज ने इच्छा (संकल्प) किया कि वह बहुत हो जाये, तब उसने जल की
सृष्टि कर दी ।
इससे
सम्बन्धित ऐतरेयोपनिषद में 1/1 में यह श्रुति उद्धृत है, कि
आत्मा
वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत्किंचन मिषत् स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति ।।1।। स
इमांल्लोकानसृजत ।।
अर्थात्
– वह एक आत्मा ही पूर्व में एक थी और कुछ भी नहीं था । तब उसने लोकों के निर्माण
की इच्छा (संकल्प) की । (तत्पश्चात्) उस (परमात्मा) ने इन लोकों की रचना कर दी ।
परमात्मा
के संकल्प शक्ति को उद्घाटित करने के लिये प्रश्नोपनिषद में 6/3-4 में यह श्रुति
उद्धृत है, कि
स
ईक्षां चक्रे ।। कस्मिन्नहमुत्क्रान्ते उत्क्रान्तो भविष्यामि कस्मिन्वा
प्रतिष्ठिते प्रतिष्ठास्यामीति ।।3।। स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः
पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च ।।4।।
उस
सौम्य (सुन्दर) ने स्वयं ही रचना करने की इच्छा (संकल्प) किया । मैं किसके चलने
(गतिमान) होने से चलूंगा (गतिमान होऊँगा) अथवा किसके स्थिर (प्रतिष्ठित) होने से
स्थिर (प्रतिष्ठित) हो जाऊंगा ?
तब उसने (ब्रह्म ने) प्राण की रचना की । प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, ज्योति
(अग्नि), जल, पृथिवी, इन्द्रिय, मन और अन्न की रचना की । अन्न से वीर्य, तप,
मन्त्र, कर्म और लोक की रचना की । लोक में ही उन्होंने नाम (उपाधि) की रचना कर दी
।
परमात्मा
के कारक तत्त्व औऱ कारण तत्तव कोई अन्य नहीं है । इससे सम्बन्धित रहस्य श्वेताश्वतरोपनिषद
में 6/8 में यह श्रुति उद्धृत है, कि
न
तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । पराऽस्य
शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ।
अर्थात्
- उस सौम्य (सुन्दर) का न तो कार्य ही ज्ञात है और न ही उसका कारण । न उसके समान
ही कोई उपलब्ध है और न उससे अधिक ही कोई दिखता है । इसकी शक्ति सबसे श्रेष्ठ सुनाई
पड़ती है जो स्वाभाविक रूप से ज्ञान, बल और क्रिया से संयुक्त है ।
परमात्मा
सभी ज्ञान के भण्डार हैं । यह प्रमाणित करती हुई मुण्डकोपनिषद में 1/1/9 में यह
श्रुति उद्धृत है, कि
यः
सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः ।।
वह,
जो सब कुछ समझता है, सब कुछ जानता है और जिसका तप ज्ञान से युक्त है, वही ब्रह्म
है ।
उन
परमात्मा के विराट शरीर से सम्बन्धित मुण्डकोपनिषद में 2/1/4 में यह श्रुति उद्धृत
है, कि
अग्निर्मूर्धा
चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः । वायुः प्राणो हृदयं
विश्वमस्य पद्भ्यां पृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा ।
अर्थात्
- अग्नि इसका सिर है, चन्द्र और सूर्य इसके दो नेत्र हैं, दिशायें इसके कान हैं,
बोली हुई वाणी इसका वेद हैं, वायु इसका प्राण है, विश्व इसका हृदय है, पृथिवी इसका
पैर है, इस प्रकार से यह समस्त भूतों (अवयवों) का अन्तरात्मा (उसमें अधिष्ठित
तत्त्व) है ।
इस
संसार में ज्ञान दो प्रकार के हैं । इस पर विचार करता हुआ ईशावास्योपनिषद में 11
वें श्रुति में उद्धृत है, कि
विद्यां
च अविद्यां च यस्तद्वेदोभयं स ह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते
।।
अर्थात्
– विद्या (ज्ञान) के दो भेद हैं, विद्या और अविद्या । अविद्या (कर्म) से मृत्यु
(प्रकृति) की अनुभूति करता है और विद्या (ज्ञान) के द्वारा अमृत (परमात्मा) की
प्राप्ति करता है ।
आशय
यह है कि हमें अविद्या जनित ज्ञान की अपेक्षा विद्या को प्राप्त करने की चेष्टा
करनी चाहिये । विद्या की प्राप्ति को इतना महत्वपूर्ण क्यों बताया गया है ? क्या परमात्मा से सम्बन्धित ज्ञान
की प्राप्ति ही सब कुछ है ?
क्या अन्य सांसारिक ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है ? यह संशय ही जीवों को परमात्म सम्बन्धित ज्ञान से दूर
रखता है । अतः इन्ही संशयों के निवारणार्थ छान्दोग्योपनिषद में 6/1/3 में यह
श्रुति उद्धृत है, कि
येनाश्रुतं
श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातमिति...
अर्थात्
- जिसके द्वारा न सुना हुआ भी सुना हुआ हो जाता है, न समझा हुआ भी समझ में आ जाता है और न जाना हुआ भी
जाना हुआ हो जाता है, वह परमात्मा है ।
आशय
यह है कि, इस एक परमात्मा की अनुभूति कर लेने के बाद ही सब कुछ का ज्ञान हो जाता
है । चुकि उससे पर कुछ भी नहीं है ।
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