संत मिलन को जाइए ...
इधर कुछ दिनों के
लिये मैं वृन्दावन से निकलकर कुछ दिनों बिना किसी विशेष आयोजन के कुछ भक्तों के घर
पर प्रवास करता हुआ घूम रहा था । मुझे भक्तों के बीच रहकर कई सारी बातों को देखने
का अवसर प्राप्त हुआ । मुझसे जो उनकी अपेक्षायें थी, शायद वो मेरे लिये उतनी महत्व नहीं रख रही थी । मेरे कर्तव्य और उनकी मुझसे की जा रही अपेक्षाओं में
समानता नहीं थी । फिर मैंने थोड़ा और आत्म-मंथन किया कि प्रायः जो वेषधारी समाज में
घूम रहे हैं, उनके द्वारा ही ऐसा भ्रम फैलाया हुआ है । मैं इस विषय पर मौन होकर
खण्डवा, पुणे, मुम्बई, बड़ोदरा आदि कई जगहों पर होता हुआ, कई भक्तों से मिलता हुआ श्रीवृन्दावन को लौट आया । मन में बहुत सारे प्रश्न और शंका उत्पन्न हो चुके थे । मुझे लगा कि इस विषय पर मुझे कुछ लिखना चाहिये कि आखिर समाज में
वेषधारियों की आवश्यकता क्या है ? उनकी उपयोगिता को समझने की आवश्यकता बहुत हो चुकी है ।एक ऐसा प्रयास कि साधु-संत-आचार्य-गुरु के कर्तव्य और समाज
में भक्तों की उनसे अपेक्षाओं में सामंजस्य की प्राप्ति को खोज हो । मैं इस तथ्य से तनिक भी अनभिज्ञ
नहीं कि, कई वेषधारी संतों को मेरी बातें शायद अनुचित लगेंगी किंतु फिर भी मैं अपने
विचारों को रखने से नहीं रोक पा रहा । ये सारे निम्नलिखित विचार मेरा मेरे
अनुयायियों के प्रति है, कि जब भी कभी आप अगली बार मुझसे या किसी अन्य आचार्य-संत-गुरु-साधु
से मिलें तो अपनी अपेक्षाओं और उनके कर्तव्यों में समानता रखने का प्रयास करें ।
मैंने यहाँ बहुत सी बातों को संकेत मात्र में कहा है, चुकि मेरा उद्देश्य मात्र
गुरु-शिष्य के सम्बन्धों में सकारात्मकता बनाये रखने का है । किसी की श्रद्धा को
ठेस पहुँचाने का कदापि प्रयास मेरा नहीं है । फिर भी यदि किसी को मेरे लेख से ठेस
पहुँचे, तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ । आप अपने सुझाव मुझे जरूर संप्रेषित करेंगे ।
आइये इस विषय को समझने का प्रयास करें ।
इस संसार में हर
वस्तु का एक अपना विशेष महत्व होता है । व्यक्तिगत, सामाजिक या वैश्विक आवश्यकताओं
के अनुसार ही किसी वस्त, व्यक्ति या स्थान के महत्व का मूल्यांकन किया जा सकता है
। महत्वपूर्ण तत्व वह है जो हमें महत्ता को प्रदान कर दे । कई बार एक छोटी सी
वस्तु भी बहुत महत्व की होती है, वहीं पर कोई विशेष वस्तु भी अपनी महत्ता खोकर
अनुपयोगी सिद्ध हो जाती है । ठीक ऐसी ही स्थित गुरु पद के लिये भी है । गुरु पद है
तो अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है किन्तु वर्तमान समय में कई ऐसी घटनायें हो रही हैं जो
गुरु पद पर ही प्रश्नचिह्न उठा देती हैं । यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाये तो कुछ
सनातन धर्मावलम्बियों पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा जो प्रामाणिक परम्पराओं के आधार
पर अपने आध्यात्मिक जीवन का संपादन करते हैं । वहीं सांसारिक चकाचौंध को देखकर
गुरुसत्ता का मूल्यांकन या समझ रखने वाले कई बार भ्रमित सा अऩुभव करते हैं ।
भारतीय सनातन परम्परा को समझने के लिए कई वर्तमानकालीन तथ्यों को आधार मानकर समझने की चेष्टा की
जा सकती है, किन्तु हर तथ्य इस परिप्रेक्ष्य में उपयोगी ही सिद्ध हो, ऐसी आवश्यकता
तो नहीं है । जैसे, कई बार हम अपने साहित्य को अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करते हैं
। मेरी भी रुचि इस प्रक्रिया में सदैव रहती है, कि हमारा दिव्य ज्ञान सबके लिये सुलभ हो
सके, इसके लिए फेस्बुक आदि वर्तमानकालीन माध्यमों में अंग्रेजी में अनुवाद करके
रहस्यों का उद्घाटन भी करता रहता हूँ किन्तु कई बार उलझनें उपस्थित हो जाती हैं ।
उपयुक्त शब्द न मिलने के कारण कई बार बड़ी परेशानी हो जाती है । जैसे, हमारी आस्था
पर आधारित सांस्कृतिक प्रसंगों के लिए एक कुत्सित शब्द का प्रयोग किया जाता है – Mythology, जिसका तात्पर्य काल्पनिक कथाओं से है । ऐसे ही तर्कों के कारण हमारी
युवा पीढ़ी के हृदय में भारतीय पद्धति के प्रति अनास्था अंकुरित और परिलक्षित होती
जा रही है । एक तरफ ये पाश्चात्य जगत का भारतवर्ष के दिव्य ज्ञान पर थोपा गया शब्द
जो भारतवर्ष में रह रहे वासियों के हृदय में अपनी ही परम्परागत प्राप्त दिव्य
ज्ञान के प्रति अनास्था उत्पन्न करती है, दूसरी तरफ हमें हमारी संस्कृत वाङ्गमय
में प्रयोग आने वाले शब्दों पर भी विचार करना चाहिये । संस्कृत वाङ्गमय में अमरकोश
नामक संग्रह का विशेष स्थान है, उसे आप संस्कृत का Thesaurus भी कह सकते हैं । उसमें एक पद है – मिथ्यादृष्टिर्नास्तिकता
– अर्थात् नास्तिकता ही मिथ्यादृष्टि है, ऐसा बताया । एक तरफ पुरातन भाषा
संस्कृत का दिव्य अमरकोश जो अनास्था को मिथ्याज्ञान कहता है और दूसरी तरफ नवीन
भाषा अंग्रेजी का ज्ञान जो आस्था को मिथ्याज्ञान कहता है । अतः सिर्फ अंग्रेजी को
आधार मानकर या वर्तमान ज्ञान को आधार मानकर हमारी पुरातन शब्दावली पर विचार करना
या उसकी व्याख्या करना, यह भ्रमास्पद भी हो सकता है । भारतीय तथ्यों को समझने के
लिए हमें हमारी पुरातन रहस्यमय ज्ञानभण्डार का स्वाध्याय करना अत्यन्त ही आवश्यक
है । आम के गुणों को समझने के लिये खजूर के उत्पादन वाली भौगोलिक स्थली का प्रयोग करता
सम्भवतः पूर्णतः उपयोगी नहीं हो सकती है । इसी आधार पर हमें भारतीय सनातन परम्परा
को समझने के लिए भारतीय मूल वैदिक आधारों का सम्मान करने पर ही सरलता और पूर्णता की
प्राप्ति होगी ।
एक ऐसा ही शब्द है गुरु । हम अपनी इन विशेष महत्त्व के चरित्र को समझने के लिए नये-नये पैमाने तलाशते रहते हैं, परिणामस्वरूप भ्रमित हो जाते हैं । कबीर साहब ने कहा है कि -
कबीर सोई दिन भला जो दिन
साधु मिलाय ।
अंक भरै भरि भेंटिये पाप
शरीरां जाये ।।
अर्थात् वही दिन भला
है जब साधु मिलन को जाया जाये । कबीर साहब ने कहा कि जाकर के उनसे खूब गले मिलिये
जिससे कि शरीर का पाप नष्ट हो जाये । गुरु तत्व पर प्रकाश डालते हुए ऐसा कहा जाता
है कि, -
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
अर्थात्, गुरु
ब्रह्मा के समान है, गुरु विष्णु के समान है, गुरु साक्षात महादेव के समान है ।
गुरु ही साक्षात् परब्रह्म के समान है, अतः उन श्रीसद्गुरुदेव को हमारा बारं-बार
प्रणाम है । श्रीसद्गुरुदेव की महिमा का गान शास्त्रों में बारं-बार किया गया है ।
वर्तमान परिवेश में हमने यह तो देखा और सुना कि शिष्यों के क्या कर्तव्य होने
चाहिये किन्तु गुरु कौन हो ? यह भी अत्यन्त विषद प्रश्न है । शरणागति भी किसी शरण्य की ही लेनी चाहिये । सर को झुकाने की अत्यन्त आवश्यकता है किन्तु सर को स्वीकार करने वाला भी सामर्थ्य शाली हो । इस संदर्भ में हमें
पूर्वाचार्यों की टिप्पणी पर विशेष ध्यान देना चाहिये । लगभग हजार वर्ष पहले
श्रीरामानुज सम्प्रदाय में प्रतिष्ठित श्रीदेशिक स्वामीजी ने अपने परमपद-सोपान
नामक दिव्य ग्रन्थ में इस पर विशेष चर्चा करी है । उन्होंने आचार्य के गुणों पर
चर्चा करते हुए आचार्य सम्बन्धित विशेष गुणों की चर्चा की है, जो विचारणीय और
आचार्यों के लिये अनुकरणीय भी हैं -
विशेषण-विशेष्योभय-स्वरूप-स्वभाव-विषये
सम्यङ्ज्ञानपूर्वकमुपदेशने समर्थस्य निर्मल-चिन्तनवतः कुलिङ्ग-शकुनिवृत्तान्त-वैदेशिकस्य
देशिकस्य चरणसम्बन्धमुपजनय्य, तन्मनोवाचावलयीकृत्य, ब्रह्मगुरुभावेनावस्थाय,
निर्दोषसत्पथप्रदर्शने प्रवृत्य, आत्मोजज्जीवनापेक्षितान् रहस्य-शब्दार्थानज्ञान-संशय-विपर्यय-विपरीत-रुचि-प्रसक्ति-परिहारेणोपदिशति
अर्थात् – आचार्य के
विशेष गुण निम्नांकित होने चाहिये –
(1)
आचार्य चेतन-अचेतन आदि
समस्त पदार्थ रूपी विशेषण और परमात्मा रूपी विशेष्य के स्वरूप को पूर्णरूप से
जाननेवाले और उस ज्ञान के सम्बन्ध में स्पष्टरूप से उपदेश करने में सामर्थ्य
रखनेवाले हों ।
(2)
आचार्य निर्मल, निश्छल और
निष्कपट स्वभाव वाले हों ।
(3)
आचार्य कुलिङ्ग नामक पक्षी
के समान कभी भी व्यवहार न करे । कुलिङ्ग पक्षी अन्य सभी पक्षियों को सिंह से दूर
करती रहती है किन्तु स्वयं सिंह के जगने पर उसके खुले जबड़े में फंसे मांस के
टुकड़ों को चुन-चुन कर खाने का प्रयास करती है । परिणामस्वरूप किसी दिन आपदाग्रस्त
हो जाती है । आचार्य को भी सदैव ही इसी प्रकार से मायावी आपदाओं से बचने का प्रयास
करना चाहिये ।
श्री भगवान की कृपा
से ही ऐसे गुणों एवं सामर्थ्य से युक्त आचार्यों के चरणों में जीव का सम्बन्ध
स्थापित होता है । तब श्रीभगवान उनके मन और वाणी को अपना निवासस्थान बनाकर
ब्रह्मगुरु भाव से विराजमान होकर उन शिष्यों को उपदेश करने लगते हैं । उनके उपदेश
और आचरण से शिष्यगण विशुद्ध सन्मार्ग अर्थात् सद्धर्म को दिखलाने के लिये प्रवृत्त
होते हैं । उत्कृष्ट जीवन की प्राप्ति के लिये श्रीभगवान गुरु के मन और वाणी के
माध्यम से रहस्यार्थ का ज्ञान देकर शिष्यों के समस्त अज्ञान, संशय, भ्रम और विपरीत
रुचि को हमेशा के लिये मिटाते हैं ।
अब हमें शिष्यों के
विषय में भी जान लेना चाहिये कि किन शिष्यों को अपने जीवन में भगवत्कृपा की
अनुभूति हो पाती है -
‘उपदेशोऽनिरर्थकः’ इत्युक्त्यसहगर्भ-श्रीमान्
सम्यगुपसन्नः “शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वा प्रपन्नम्” इति श्रवणोत्सुकोऽयं चेतनः
अर्थात् – जिस साधक
ने किसी भी जन्म में कोई शुभ कर्म न किये हों, जिसके कारण वह कई जन्मों में
उपार्जित पापों के कारण गर्भ के समय श्रीभगवान की कृपादृष्टि की प्राप्ति नहीं कर
पाया हो, उसे कितना भी अच्छा उपदेश क्यों न मिल जाये, किंतु उस पर उसका कोई प्रभाव
नहीं पड़ता । अतः श्रीभगवान की कृपा-कटाक्ष की प्राप्ति ही शिष्यत्व की पहली
अर्हता है । श्रीरामचरितमानस में भी यही लिखा है –
बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
दूसरी तरफ जिसे
श्रीभगवान की कृपा-कटाक्ष की प्राप्ति जन्म काल में ही हो चुकी है, उसे भली-भांति
आचार्य की सेवा करने की कोशिश करनी होती है । चुकि श्रीभगवान श्रीसद्गुरु के मन और
वाणी में स्थिर भाव से उपस्थित रहते हैं । अतः प्रसन्नचित्त मन वाले श्रीसद्गुरु
के चित्त में से निस्सरित ज्ञानप्रवाह ही शिष्य के चित्त को शांति पहुँचाती है ।
शिष्य की तीसरी
योग्यता की चर्चा करते हुये बताया कि, शिष्य को अपने श्रीसद्गुरु के चरणों में
जाकर शरणागति की याचना करें और उनकी शिष्यता को स्वीकार करके तत्पश्चात उनसे
भवसागर से रक्षार्थ उपदेश की याचना करनी चाहिये । उनके उपदेश को सुनने की उत्सुकता
को प्रदर्शित करे । श्रीरामचरितमानस में उद्धृत है कि
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं । आरत अधिकारी जहँ पावहिं ।।
अर्थात्, आचार्य
अधिकारी शरणागत साधक को देखकर गुप्त से गुप्त ज्ञान भी प्रदान कर देते हैं । वो भी
इसीलिये कि आर्त जनों को देखकर श्रीभगवान द्रवित हो जाते हैं और उसी समय आचार्य के
मन और वाणी से अपनी दिव्य कृपा को उपदेश के रूप में प्रदान करने लगते हैं ।
श्रीभगवान की कृपा
से आचार्य की प्राप्ति के बाद शिष्य उन अपने आचार्य के पास जाये तो उनसे किस-किस
प्रसंग की चर्चा सुने -
अभिव्याप्त-विस्तृताधोव्याप्तोर्ध्वव्याप्त-नाशरहित-महाप्राचीने
क्षेत्रे उदितानां महदहङ्कारमनःप्रभृतीनां विविधविषवृक्षानां बहुप्रकारं
बाधकत्वम्, अभिव्याप्तदधिक-परसमीचीन-विकस्वरज्योतीरूपाणां जीवात्मनां
शरीरकारागृह-निवासकैङ्कर्य-साम्राज्यदशे अभिव्याप्तदधिक-प्रभारूप-ज्ञानानन्दस्य
निरतिशयाति-शयितानन्दवतः प्रकारांश्चावहितः श्रुत्वा
अर्थात्, प्रकृति
सभी दिशाओं में अधिक विस्तृत, जितना नीचे जायें उतनी ही उसकी उपस्थिति उधर दिखती
है, जितना ऊपर जायें तो उतनी ही उसकी उपस्थिति उधर दिखती है, नाश रहित है (चुकि
सृष्टि के निर्माण में इन्हीं प्राकृतिक तत्वों का उपयोग सदैव किया जाता है ।) ऐसी
ही प्रकृति रूपी अत्यन्त ही प्राचीन खेत में महतत्त्व, अहङ्कार, मन इत्यादि तत्वों
के बड़े बड़े विविध प्रकार के विषैले वृक्ष उसमें उपजकर बाधक रूप में जीवों को
अपने जाल (मोहजाल) में बांध लेते हैं । इस प्रकार से प्रकति औऱ प्रकृति जनित वस्तु
जीवों के लिये सदैव ही विघ्नकारी उपस्थित होती हैं । जीव ही चित्त तत्त्व है ।
श्रीभगवान का सहज रूप से ही परतन्त्र भाव को प्राप्त प्रज्ञाप्राप्त जीवात्मा का
प्रकाश दीपक के प्रकाश से भी अधिक सभी ओर चमकता रहता है । प्रज्ञाप्राप्त जीवात्मा
शरीर रूपी कारागृह के निवास से मुक्ति पाकर श्रीभगवान के कैङ्कर्यसाम्राज्य पद पर
अभिषिक्त होता है । सभी ओर से भी अधिक व्याप्त अतुलनीय ज्ञान और अनुपम आनन्द के
धाम श्रीभगवान भी सीमायुक्त (सांसारिक बन्धनों से युक्त होकर) आनंद के साथ जीवों
के उद्धार के लिये इस धरा पर बारं-बार अवतरित होते रहते हैं । ऐसी रहस्यमयी वार्ता
को सुनकर जीव अपनी, प्रकृति और परमात्मा की स्थिति को समझने के बाद उन परमात्मा
श्रीभगवान की कृपा पर विश्वस्त होकर अपने जीवन को चरितार्थ करता हुआ परमपद की ओर
अग्रसर हो जाता है ।
इन सभी तथ्यों का
गहन चिन्तन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि, जीव के उद्धार का माध्यम आचार्य ही
है । किन्तु वर्तमान समय की सबसे बड़ी चिन्तनीय अवस्था यह है कि हम अपने आचार्य को
भवरोग के नाशक रूप में देखकर भवसागर की समस्याओं को दूर करने वाले के रूप में
देखते हैं । जिनसे हमारी कामनाओं की पूर्ति हो जाये । सांसारिक कमियों को दूर करने
की चेष्टा हम अपने गुरुदेव की कृपा से करते रहते हैं । यह उचित नहीं । जिस तरीके
से गंगा जी से जल की प्यास बुझाने की चेष्टा की अवधारणा रखना मूढ़ता है जबकि गंगा
जी के जल में श्रीभगवत्कृपा प्रदान कराने की शक्ति विद्यमान है । ठीक उसी प्रकार
से परमपद को प्राप्त करने के सामर्थ्य रखने वाले आचार्य से सांसारिक कमियों को दूर
करने की कामना रखना ही दोषयुक्त है । जैसा कि श्रीमद्भागवत माहात्म्य में उद्धृत
है कि -
प्रयच्छति गुरुः प्रीतो
वैकुण्ठं योगीदुर्लभं ।
अर्थात्,
श्रीसद्गुरु से मिलने जब जायें तब मन में यही विश्वास रखें कि हमें उनके पास जाकर
इस संसार के भवरोग से दूर होकर परमपद की प्राप्ति को उपाय पर ही गहन चिन्तन करनी
चाहिये । यह सत्य है कि श्रीवैष्णवाचार्यों ने संसार के ही माध्यम से भगवदुपासना
की विधि बताई है । पुष्पों को चढ़ाना, भोग बनाना और उत्सव मनाना आदि किन्तु इनके
मूल में इन सभी कार्यों और कर्तव्यों को भगवद चरणकमलार्पण करने की अत्यन्त
आवश्यकता है । प्रायः हम सभी अपनी हर सफलता का श्रेय खुद को देते हैं, अपने
पुरुषार्थ को देते हैं किन्तु विपदा के आगमन पर श्रीभगवान को ही दोषी बताते हैं ।
परमकल्याणकारी श्रीवैष्णवाचार्यों ने इस पर गहन चिन्तन करके ही उत्सवों को मनाने
की परम्परा बनाई कि जीव अपने शुभ कर्मों में भी श्रीभगवत्कृपा को ही आधार मानकर
भगवद्मुखोल्लास हेतु अपने समस्त कृत्यों को करता हुआ श्रीभगवान की अहैतुकी कृपा का
पात्र बन जाये । अतः हमें सर्वदा अपने आचार्यों के पास जाकर उनसे अपने (जीव के) और
श्रीभगवान के बीच के सम्बन्ध को प्रगाढ़ करने हेतु ही चर्चा करनी चाहिये । अन्य
चर्चाओं को करने की चेष्टा भी भागवतापराध के समान ही समझनी चाहिये । जैसे किसी
मन्दिर में किसी प्रकार की घरेलू चर्चा को करना भागवतापराध माना जाता है, ठीक वैसे
ही श्रीसद्गुरु देव की सन्निधि में जाकर घरेलू समस्याओं की चर्चा करना भी
भागवतापराध ही समझना चाहिये । सांसारिक सम्बन्धों की चिन्ता को लेकर
श्रीसद्गुरुदेव से चर्चा करना व्यर्थ है । आचार्य के पास जाकर तो श्रीभगवान के
प्रति अपने सहज सम्बन्ध की सुदृढ़ता की चर्चा ही करना श्रेयस्कर है ।
जयश्रीमन्नारायण,
स्वामी श्रीवेंकटेशाचार्य जी,
श्रीचरण आश्रम, वृन्दावन ।
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धन्यवाद
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