सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

वर्तमान परिवेश में भारतीय गुरुपरम्परा को समझने की आवश्यकता

।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।
भारतवर्ष की सनातनी परम्परा न तो पुरुष प्रधान ही रहा और न ही स्त्री प्रधान । यह सुनकर आश्चर्य तो लगता है किन्तु फिर भी यही सत्य है । वैसे कुप्रचारकों के द्वारा जिन्हें हमारी भारतीय सनातनी परम्परा का कुछ भी ज्ञान नहीं, उनके द्वार ऐसा भ्रम भलीभांति फैलाया जा चुका है कि हमारी भारतीय सनातनी परम्परा पुरुष प्रधान समाज को स्थापित करती है । किंतु यह चर्चा वास्तविक में अप्रासंगिक है । कोई भी स्त्री या पुरुष अपने पितृपक्ष या मातृपक्ष के कुछ पीढ़ी ऊपर तक ही  जानकारी रखता है किन्तु सभी को अपना गोत्र जरूर मालूम रहता है । अर्थात गोत्र ही वो प्रधान कड़ी है जिसका ध्यान किसी भी धार्मिक क्रिया के प्रारम्भ में होने वाले संकल्प आदि में प्रयोग किया जाता है । यह गोत्र न तो उसके पिता का नाम होता है और न ही उसके माता का । फिर किसका है ? गोत्र परिचायक उन ऋषि के जिनसे उस स्त्री या पुरुष के पूर्वजों का सम्बन्ध रहा है । अर्थात् गोत्र परम्परा स्पष्ट रूप से यह दर्शाती है कि भारतीय सनातनी परम्परा ऋषि प्रधान समाज की स्थापना करता है । अर्थात् हमारे लिये लिंग भेद की प्रधानता न होकर ज्ञान ही हमारे पहचान की पृष्ठभूमि रही है । वर्तमान समय में हमारे युवाओं को गोत्र का संज्ञान नहीं रहता । यह अत्यन्त ही चिंता का विषय है । गोत्र परम्परा का ज्ञान इस शंका को दूर करता रहेगा कि कभी हमारे समाज में स्त्रीप्रधना या पुरुष-प्रधान रूपी कोई कल्पना या सोंच भी थी ।  
आज के समय में इसकी चर्चा की आवश्यकता किस लिये है ? चुकि आज आये दिन  किसी न किसी बाबा को लेकर आपत्तिजनक समाचार आते रहते हैं । हमारी युवा पीढ़ी अब इस तर्क को भी मानने से घबड़ायेगी कि क्या ऐसी ही ऋषि परम्परा है ? तो नहीं । इस समस्या का मूल भी आधुनिकता और उसी सोंच में पिरोकर अध्यात्म को पेश करने की कोशिश । भक्तियुग काल में कई ऐसे सन्त हुए जिन्होंने कुरीतियों को तोड़कर समाज के सभी वर्ग को भगवान से जोड़ने के लिए भगीरथ प्रयास किया किन्तु आज कुरीतियों की जगह तथाकथित साधुवेशधारी सामाजिक संरचना को दीमक की तरह नष्ट कर आपत्तिजनक दृश्यों का निर्माण कर बैठते हैं । बारं-बार इसके कारण सवाल उठते रहते हैं । मूल कारण क्या है ? इस बात के लिए हमें धीरज मन से कुछ कठोर और अनुशासित पद्धतियों का अवलोकन करना चाहिए । विडम्बना यह है कि एक तरफ आधुनिकता से स्वयं को सम्पुष्ट करना दूसरी तरफ आधुनिकता की दौड़ से श्रमित होने के बाद आध्यात्मिकता की खोज । साथ ही साथ संसार के अन्य स्थानों की संस्कृतियों के अनुसार भारतीय परम्परा के पुनर्निमाण करने का चाह । हम भ्रमित हो चुके हैं । एक तरफ हम आधुनिकता का त्याग भी नहीं करना चाहते । दूसरी तरफ अध्यात्म का  अनुपम आनन्द भी हमें चाहिए । परिणाम कुछ विभत्स हो जाता है । जो वेषधारी धन और प्रतिष्ठा के लोभ में वेष को धारण किये रहते हैं, उनकी प्राथमिकता हो जाती है कि वो खुद को आधुनिकता की होड़ में स्थापित करें । दौड़ तो ज्ञान प्राप्ति में शुरू से ही रहा है । हनुमान जी को भी सूर्य से ज्ञानप्राप्ति के  लिए सूर्यदेव की तीव्रता के अनुसार उनके आगे-आगे दौड़ना पड़ा था । किन्तु, अब दिखता उलटा है । ज्ञानप्राप्ति की उत्कण्ठा से ज्यादा ज्ञानदेने की उत्कण्ठा रहती है । इस हास्यास्यपद स्थिति के कारण गूरु स्वरूप वेषधारी ही शिष्य के अनुसार दौड़ने लगता है । परिस्थितियां कुछ विचित्र बन जाती है । चुकि शिष्य वर्ग में तो सभी प्रकार के शिष्य होते हैं । अच्छे अच्छाई की ओर, बुरे बुराई की ओर ले जाते हैं । यदि गुरुसत्ता प्रभावी हुई, तो दोनों प्रकार के शिष्य अध्यात्म जगत की ओर अग्रसर होते हैं । अन्यथा प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण होने की संभावना बन जाती है ।
पुनः चिंता का विषय है कि क्या स्वरूप मात्र से ही गुरु मान लिया जाये ? यह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । हमारे पाठकों को इस प्रश्न पर बहुत ही ध्यान से विचार करना चाहिये । मुगल काल से पूर्व इस देश में सामाजिक या आध्यात्मिक किसी भी प्रकार की चर्चा को सामाजिक रूप में कहने से पूर्व उसे शास्त्रसम्मत करना अत्यन्त ही अनिवार्य होता था । जैसे आज न्यायालय में पूर्व के नियम-न्याय और वर्तमान परिवेश के आधार पर बृहद चर्चा करने के बाद ही कोई परिवर्तन की संभावना होती थी, ठीक उसी प्रकार से यदि कोई नूतन सिद्धांतों को स्थापित करना चाहता था तो उसे विद्वानों की गोष्ठी में जाकर, अपने सिद्धांतों को परिभाषित और स्थापित करने की आवश्यकता होती थी । प्रयाग आदि स्थानों पर कुम्भ आदि का आयोजन का मूल उद्देश्य भी यही था । किन्तु अब कोई भी इस परम्परा का अनुमोदन न करता हुआ, अपने सिद्धांतों का प्रचार प्रारम्भ कर देता है । यदि भारतवर्ष की इस पुरानी परम्परा को स्वीकार किये बिना कोई अपनी बात स्थापित करता है तो उसे ढ़ोंग ही समझना चाहिये । शास्त्रपूतं वदेद् वाक्यं - अर्थात् शास्त्र से पवित्र करके ही अपनी वाणी को बोलना चाहिये । सिर्फ नये-मनलुभावने सिद्धांतों को सुनकर उसकी ओर चल देना यह भारतीयता नहीं । अर्थात् ऐसे तथाकथित कुप्रचारकों को भारतीय साधु न समझना ही उचित है । ये आपत्तिजनक में पाये जाने वाले वेषधारियों को कालनेमि सदृश राक्षस ही समझना उपयुक्त है । अतः बारं-बार विचार करें और इसकी जानकारी जरूर करें कि जो वक्ता या उपदेशक कुछ उपदेश कर रहे हों, उन्होंने अपने सिद्धांतों को पूर्व के सिद्धांतो से पुष्ट कर रखा है या फिर उनके मनमुखी विचार हैं । मनमुखी वेषधारियों को साधु या गुरु समझना बहुत बड़ी भूल है ।
स्वामी श्रीवेंकटेशाचार्यजी,
श्रीचरण आश्रम, वृंदावन ।

इसे भी पढ़ें ----
https://shricharan-ashram.blogspot.com/2017/09/blog-post_24.htm

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् - अन्वय और व्याख्या । श्रीमद्भागवत मंगलाचरण ।

  जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ते यत्सूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ।। (1/1/1) श्रीमद्भागवत महापुराण का मंगलाचरण का प्रथम श्लोक अद्भुत रहस्यों से युक्त है । आइए इस पर विचार करें - य ब्रह्म - वह जो ब्रह्म है, जन्माद्यस्य यतः - जिससे इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं, और जो इतरतः - अन्य स्थान (नित्य विभूति वैकुण्ठ) से, अन्वयात् – पीछे से (गुप्त रूप से या परोक्ष रूप से अन्तर्यामी भाव से), अर्थेषु – सासांरिक वस्तुओं में (उस परम अर्थ के लिए उपस्थित वस्तु को अर्थ कहते हैं), अभिज्ञः – जानने वाला है (साक्षी जीवात्मा के रूप में उपस्थित या परम कर्ता है), च – और, स्वराट् - परम स्वतंत्र है, इ – अचरज की बात यह है कि, तेन – उसके द्वारा, हृदा – संकल्प से ही, आदिकवये – आदिकवि ब्रह्माजी के लिए वेदज्ञान दिया गया है, यत्सूरयः –जिसके विषय में (उस परम ज्ञान या भगवद्लीला के बारे में) बड़े-बड़े विद्वान भी, मुह्यन्ति – मोहित हो जाते हैं । यथा –जैसे, त...

कलिसंतरण उपनिषद - हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।

यद्दिव्यनाम स्मरतां संसारो गोष्पदायते । सा नव्यभक्तिर्भवति तद्रामपदमाश्रये ।।1।। जिसके स्मरण से यह संसार गोपद के समान अवस्था को प्राप्त हो जाता है, वह ही नव्य (सदा नूतन रहने वाली) भक्ति है, जो भगवान श्रीराम के पद में आश्रय प्रदान करती है ।।1।। The ever-young Bhakti (devotion) by the grace of which this world becomes like the hoof of a cow, provides refuge in the feet of Lord Shri Ram. ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।। ॐ हम दोनों साथ में उनके (परमात्मा के) द्वारा रक्षित हों । दोनों साथ में ही आनंद की प्राप्ति (भोग) करें । दोनों साथ में ही अपने वीर्य (सामर्थ्य) का वर्धन करें । (शास्त्रों का) का अध्ययन करके तेजस्वी बनें । आपस में द्वेष का भाव न रखें । Oum. Let both of us be protected by Him together. Both of us attain the eternal bliss (ojectives) together. Both of us increase the spunk together. Both of us become enlightened after studying the different Shastras (the noble verses). Both of us...

डगर डगर आज गोकुला नगरिया, बधैया बाजे ।