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सितंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

संत मिलन को जाइये

संत मिलन को जाइए ... इधर कुछ दिनों के लिये मैं वृन्दावन से निकलकर कुछ दिनों बिना किसी विशेष आयोजन के कुछ भक्तों के घर पर प्रवास करता हुआ घूम रहा था । मुझे भक्तों के बीच रहकर कई सारी बातों को देखने का अवसर प्राप्त हुआ । मुझसे जो उनकी अपेक्षायें थी, शायद वो मेरे लिये उतनी महत्व नहीं रख रही थी । मेरे कर्तव्य और उनकी मुझसे की जा रही अपेक्षाओं में समानता नहीं थी । फिर मैंने थोड़ा और आत्म-मंथन किया कि प्रायः जो वेषधारी समाज में घूम रहे हैं, उनके द्वारा ही ऐसा भ्रम फैलाया हुआ है । मैं इस विषय पर मौन होकर खण्डवा, पुणे, मुम्बई, बड़ोदरा आदि कई जगहों पर होता हुआ, कई भक्तों से मिलता हुआ श्रीवृन्दावन को लौट आया । मन में बहुत सारे प्रश्न और शंका उत्पन्न हो चुके थे । मुझे लगा कि इस विषय पर मुझे कुछ लिखना चाहिये कि आखिर समाज में वेषधारियों की आवश्यकता क्या है ?  उनकी उपयोगिता को समझने की आवश्यकता बहुत हो चुकी है । एक ऐसा प्रयास कि साधु-संत-आचार्य-गुरु के कर्तव्य और समाज में भक्तों की उनसे अपेक्षाओं में सामंजस्य की प्राप्ति को खोज हो । मैं इस तथ्य से तनिक भी अनभिज्ञ नहीं कि, कई वेषधारी संतों को...

पर्व और परम्परा की आवश्यकता

पर्व और परम्परा : भारतीय दिव्य ज्ञानभण्डार की पहचान किसी भी विषय के ज्ञान और उसके प्रायोगिक स्थिति – दोनों में सामंजस्य बनाने से ही वास्तविक अनुभूति की प्राप्ति होती है । भारतवर्ष की पहचान सदा से ही ज्ञान और उसके प्रयोग द्वारा प्राप्त अनुभवों के संग्रहण और भविष्य की पीढ़ियों को उसके संप्रेषित करने की समुचित व्यवस्था की प्राप्ति से रही है । इसी क्रम में पर्व और परम्परा की आवश्यकता भारतवर्ष में प्रमुखता से दर्शाई गई है किंतु वर्तमान काल में विडम्बना यही है, कि हम समसामयकि काल में चल रही शिक्षण पद्धति के दुष्परिणामों को भोग रहे हैं । हमारे पर्व और परम्परा से सम्बन्धित प्रसंगों के लिए एक कुत्सित शब्द का प्रयोग किया जा रहा है – Mythology , जिसका तात्पर्य काल्पनिक कथाओं से है । ऐसे ही तर्कों के कारण हमारी युवा पीढ़ी के हृदय में भारतीय पद्धति के प्रति अनास्था अंकुरित और परिलक्षित होती जा रही है । एक तरफ ये पाश्चात्य जगत का भारतवर्ष के दिव्य ज्ञान पर थोपा गया शब्द जो भारतवर्ष में रह रहे वासियों के हृदय में अपनी ही परम्परागत प्राप्त दिव्य ज्ञान के प्रति अनास्था उत्पन्न करती है, दूसरी तरफ ह...

नवरात्र व्रत : व्यक्तिगत और सामाजकि लाभ के लिये प्रमाणिक

शारदीय नवरात्र पर विशेष भारत, यह नाम स्वयं में ही संस्कृति, सभ्यता और ज्ञान की अनुभूति करा देती है । सत्य तो यह है कि अनादि काल से चली आ रही परम्पराओं को लेकर चलने वाले इस भूखण्ड के भीतर का हर दृश्य ही कोई न कोई विशेष रहस्य लेकर संजोये है । प्रातः काल के सूर्योदय से लेकर अगले दिन के सूर्योदय तक होने वाली समस्त गतिविधियों में कई रहस्य लेकर ही यहाँ की दिनचर्या स्थापित है । पूरे वर्ष भर में होने वाले सभी षड्ऋतुओं में विभिन्न-विभिन्न रस्मों का निभाना भी बहुत सारे रहस्य लेकर ही स्थापित है । जीवन भर के भिन्न-भिन्न बाल्य-युवा आदि अवस्थाओं से सम्बन्धित संस्कारों में भी गूढ़ रहस्यों पर विचार किया गया है । आधुनिकता कि इस चकाचौंध में न जाने क्यों जनमानस का इन सांस्कृतिक गतिविधियों से सम्बन्ध उठता चला जा रहा है । यह विचारणीय है । चुकि व्यक्तिगत रूप से विचार करने पर ऐसा परिलक्षित होता है कि यदि किसी कारणवश स्वयं की दैनंदिनी में कोई बहुत बड़ा बदलाव आ जाये तो पुनः दैनंदिनी को पूर्वानुरूप करना कष्टसाध्य ही होता है । कई बार तो हम सोंचते ही रह जाते हैं किन्तु पहले की भांति की दैनंदिनी की स्थापना नही...

वर्तमान परिवेश में भारतीय गुरुपरम्परा को समझने की आवश्यकता

।।श्रीमते रामानुजाय नमः।। भारतवर्ष की सनातनी परम्परा न तो पुरुष प्रधान ही रहा और न ही स्त्री प्रधान । यह सुनकर आश्चर्य तो लगता है किन्तु फिर भी यही सत्य है । वैसे कुप्रचारकों के द्वारा जिन्हें हमारी भारतीय सनातनी परम्परा का कुछ भी ज्ञान नहीं, उनके द्वार ऐसा भ्रम भलीभांति फैलाया जा चुका है कि हमारी भारतीय सनातनी परम्परा पुरुष प्रधान समाज को स्थापित करती है । किंतु यह चर्चा वास्तविक में अप्रासंगिक है । कोई भी स्त्री या पुरुष अपने पितृपक्ष या मातृपक्ष के कुछ पीढ़ी ऊपर तक ही  जानकारी रखता है किन्तु सभी को अपना गोत्र जरूर मालूम रहता है । अर्थात गोत्र ही वो प्रधान कड़ी है जिसका ध्यान किसी भी धार्मिक क्रिया के प्रारम्भ में होने वाले संकल्प आदि में प्रयोग किया जाता है । यह गोत्र न तो उसके पिता का नाम होता है और न ही उसके माता का । फिर किसका है ? गोत्र परिचायक उन ऋषि के जिनसे उस स्त्री या पुरुष के पूर्वजों का सम्बन्ध रहा है । अर्थात् गोत्र परम्परा स्पष्ट रूप से यह दर्शाती है कि भारतीय सनातनी परम्परा ऋषि प्रधान समाज की स्थापना करता है । अर्थात् हमारे लिये लिंग भेद की प्रधानता न होकर ज्ञान...