पञ्चायुधस्तोत्रम् स्फुरत्सहस्रारशिखातितीव्रं सुदर्शनं भास्करकोटितुल्यम् । सुरद्विषां प्राणविनाशि विष्णोश्चक्रं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ।।1।। मैं सदा ही हजारों चमकदार अत्यन्त ही तेज (धारदार) आरों से युक्त करोड़ों सूर्य के समान तेज वाले, देवताओं से द्वेष करनेवालों के प्राण को नष्ट करने वाले भगवान विष्णु (श्रीमन्नारायण) के सुदर्शन चक्रराज की शरण में प्रपत्ति लेता हूँ । विष्णोर्मुखोत्थानिलपूरितस्य यस्य ध्वनिर्दानवदर्पहन्ता । तं पाञ्चजन्यं शशिकोटिशुभ्रं शङ्खं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ।।2।। जिनकी ध्वनि से दानवों के अहंकार का नाश होता है, मैं सदा ही भगवान विष्णु (श्रीमन्नारायण) के मुख से निकले हुये वायु से पूरित करोड़ों चन्द्रमा की उज्ज्वल आभा के समान उन पाञ्चजन्य नामक शंख की शरण में प्रपत्ति लेता हूँ । हिरण्मयीं मेरुसमानसारां कौमोदकीं दैत्यकुलैकहन्त्रीम् । वैकुण्ठवामाग्रकराभिमृष्टां गदां सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ।।3।। मैं सदा ही स्वर्णमयी, मेरुपर्वत के समान गंभीर, दैत्यों के कुल का नाश करनेवाले और भगवान वैकुण्ठ (श्रीमन्नारायण) की बाईं भुजा में सुशोभित कौमोदक...