ॐ ऊर्ध्वपुण्ड्रोपनिषत् अथ श्रीवराहरूपिणं भगवन्तं प्रणम्य सनत्कुमारः पप्रच्छ । अधीहि भगवन् ऊर्ध्वपुण्ड्रविधिम् । किं द्रव्यं किं स्थानं का रेखा को मन्त्रः कः कर्ता किं फलमिति च । वराहरूपधारी भगवान को प्रणाम करके सनत्कुमार ने पूछा । हे भगवन् ! मुझे ऊर्ध्वपुण्ड्र की विधि अध्ययन करनी है । वह किस वस्तु से बनता है ? किस स्थान पर धारण किया जाता है ? कितनी रेखा का होता है ? उसका क्या मन्त्र है ? उसको कौन धारण करनेवाला है ? उसका क्या फल है ? श्रीवराह उवाच । क्षीराब्धितः श्वेतद्वीपे क्षीरखण्डान् वैनतेय आनीय सटाभिः द्विदऴनश्वेतमृत्तिकाखण्डमुक्तिसाधिका भवन्ति । विष्णुपत्नीं महीं देवीमिति श्वेतमृत्तिकां नमस्कृत्य, ओमिति हस्तेनोद्धृत्य । अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरा । शिरसा धारिता देवि रक्षस्व मां पदे पदे ।। इत्येताभिः प्रार्थयेत् । श्रीवराह भगवान ने कहा – गरुड़जी श्वेतद्वीप के क्षीरसागर से क्षीर (दूध) के भाग (अंश) को सूअर के खड़े रोम (वराह भगवान के रोम से उपजे कुश) के साथ ले आए । उस श्वेतमिट्टी के खण्ड को द्विदलन (पीसने की प्रक्रिया) किया ...